Wednesday, October 11, 2017

रानी पद्मावती और गोरा-बादल - पंडित नरेंद्र मिश्र ।




दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ।
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी ॥
रावल रत्न सिंह को छल से कैद किया खिलजी ने
काल गई मित्रों से मिलकर दाग किया खिलजी ने
खिलजी का चित्तोड़ दुर्ग में एक संदेशा आया
जिसको सुनकर शक्ति शौर्य पर फिर अँधियारा छाया
दस दिन के भीतर न पद्मिनी का डोला यदि आया
यदि ना रूप की रानी को तुमने दिल्ली पहुँचाया
तो फिर राणा रत्न सिंह का शीश कटा पाओगे
शाही शर्त ना मानी तो पीछे पछताओगे
दारुन संवाद लहर सा दौड़ गया रण भर में
यह बिजली की तरक छितर से फैल गया अम्बर में
महारानी हिल गयीं शक्ति का सिंघासन डोला था
था सतीत्व मजबूर जुल्म विजयी स्वर में बोला था
रुष्ट हुए बैठे थे सेनापति गोरा रणधीर
जिनसे रण में भय कहती थी खिलजी की शमशीर
अन्य अनेको मेवाड़ी योद्धा रण छोड़ गए थे
रत्न सिंह के संध नीद से नाता तोड़ गए थे
पर रानी ने प्रथम वीर गोरा को खोज निकाला
वन वन भटक रहा था मन में तिरस्कार की ज्वाला
गोरा से पद्मिनी ने खिलजी का पैगाम सुनाया
मगर वीरता का अपमानित ज्वार नही मिट पाया
बोला मैं तो बोहोत तुक्ष हू राजनीती क्या जानू
निर्वासित हूँ राज मुकुट की हठ कैसे पहचानू
बोली पद्मिनी समय नही है वीर क्रोध करने का
अगर धरा की आन मिट गयी घाव नही भरने का
दिल्ली गयी पद्मिनी तो पीछे पछताओगे
जीतेजी राजपूती कुल को दाग लगा जाओगे
राणा ने को कहा किया वो माफ़ करो सेनानी
यह कह कर गोरा के क़दमों पर झुकी पद्मिनी रानी
यह क्या करती हो गोरा पीछे हट बोला
और राजपूती गरिमा का फिर धधक उठा था शोला
महारानी हो तुम सिसोदिया कुल की जगदम्बा हो
प्राण प्रतिष्ठा एक लिंग की ज्योति अग्निगंधा हो
जब तक गोरा के कंधे पर दुर्जय शीश रहेगा
महाकाल से भी राणा का मस्तक नहीँ कटेगा
तुम निश्चिन्त रहो महलो में देखो समर भवानी
और खिलजी देखेगा केसरिया तलवारो का पानी
राणा के शकुशल आने तक गोरा नहीँ मरेगा
एक पहर तक सर काटने पर धड़ युद्ध करेगा
एक लिंग की शपथ महाराणा वापस आएंगे
महा प्रलय के घोर प्रबन्जन भी न रोक पाएंगे
शब्द शब्द मेवाड़ी सेना पति का था तूफानी
शंकर के डमरू में जैसे जाएगी वीर भवानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी ।
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ॥
खिलजी मचला था पानी में आग लगा देने को
पर पानी प्यास बैठा था ज्वाला पि लेने को
गोरा का आदेश हुआ सज गए सात सौ डोले
और बाँकुरे बदल से गोरा सेनापति बोले
खबर भेज दो खिलजी पर पद्मिनी स्वयं आती है
अन्य सात सौ सखियाँ भी वो साथ लिए आती है
स्वयं पद्मिनी ने बादल का कुमकुम तिलक किया था
दिल पर पत्थर रख कर भीगी आँखों से विदा किया था
और सात सौ सैनिक जो यम से भी भीड़ सकते थे
हर सैनिक सेनापति था लाखो से लड़ सकते थे
एक एक कर बैठ गए सज गयी डोलियां पल में
मर मिटने की होड़ लग गयी थी मेवाड़ी दल में
हर डोली में एक वीर था चार उठाने वाले
पांचो ही शंकर के गण की तरह समर मतवाले
बज कूच शंख सैनिकों ने जयकार लगाई
हर हर महादेव की ध्वनि से दशो दिशा लहराई
गोरा बादल के अंतस में जगी जोत की रेखा
मातृ भूमि चित्तोड़ दुर्ग को फिर जी भरकर देखा
कर प्रणाम चढ़े घोड़ो पर सुभग अभिमानी
देश भक्ति की निकल पड़े लिखने वो अमर कहानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी ।
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ॥
जा पहुंचे डोलियां एक दिन खिलजी के सरहद में
उधर दूत भी जा पहुंच खिलजी के रंग महल में
बोला शहंशाह पद्मिनी मल्लिका बनने आयी है
रानी अपने साथ हुस्न की कलियाँ भी लायी है
एक मगर फ़रियाद उसकी फकत पूरी करवा दो
राणा रत्न सिंह से एक बार मिलवा दो
खिलजी उछल पड़ा कह फ़ौरन यह हुक्म दिया था
बड़े शौख से मिलने का शाही फरमान दिया था
वह शाही फरमान दूत ने गोरा तक पहुँचाया
गोरा झूम उठे छन बादल को पास बुलाया
बोले बेटा वक़्त आ गया अब काट मरने का
मातृ भूमि मेवाड़ धरा का दूध सफल करने का
यह लोहार पद्मिनी भेष में बंदी गृह जायेगा
केवल दस डोलियां लिए गोरा पीछे ढायेगा
यह बंधन काटेगा हम राणा को मुख्त करेंगे
घोड़सवार उधर आगे की खी तैयार रहेंगे
जैसे ही राणा आएं वो सब आंधी बन जाएँ
और उन्हें चित्तोड़ दुर्ग पर वो शकुशल पहुंचाएं
अगर भेद खुल गया वीर तो पल की देर न करना
और शाही सेना पहुंचे तो बढ़ कर रण करना
राणा जीएं जिधर शत्रु को उधर न बढ़ने देना
और एक यवन को भी उस पथ पावँ ना धरने देना
मेरे लाल लाडले बादल आन न जाने पाए
तिल तिल कट मरना मेवाड़ी मान न जाने पाए
ऐसा ही होगा काका राजपूती अमर रहेगी
बादल की मिट्टी में भी गौरव की गंध रहेगी
तो फिर आ बेटा बादल साइन से तुझे लगा लू
हो ना सके शायद अब मिलन अंतिम लाड लड़ा लू
यह कह बाँहों में भर कर बादल को गले लगाया
धरती काँप गयी अम्बर का अंतस मन भर आया
सावधान कह पुन्ह पथ पर बढे गोरा सैनानी
पूँछ लिया झट से बढ़ कर के बूढी आँखों का पानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी ।
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ॥
गोरा की चातुरी चली राणा के बंधन काटे
छांट छांट कर शाही पहरेदारो के सर काटे
लिपट गए गोरा से राणा गलती पर पछताए
सेना पति की नमक खलाली देख नयन भर आये
पर खिलजी का सेनापति पहले से ही शंकित था
वह मेवाड़ी चट्टानी वीरो से आतंकित था
जब उसने लिया समझ पद्मिनी नहीँ आयी है
मेवाड़ी सेना खिलजी की मौत साथ लायी है
पहले से तैयार सैन्य दल को उसने ललकारा
निकल पड़ा तिधि दल का बजने लगा नगाड़ा
दृष्टि फिरि गोरा की राणा को समझाया
रण मतवाले को रोका जबरन चित्तोड़ पठाया
राणा चले तभी शाही सेना लहरा कर आयी
खिलजी की लाखो नंगी तलवारें पड़ी दिखाई
खिलजी ललकारा दुश्मन को भाग न जाने देना
रत्न सिंह का शीश काट कर ही वीरों दम लेना
टूट पदों मेवाड़ी शेरों बादल सिंह ललकारा
हर हर महादेव का गरजा नभ भेदी जयकारा
निकल डोलियों से मेवाड़ी बिजली लगी चमकने
काली का खप्पर भरने तलवारें लगी खटकने
राणा के पथ पर शाही सेना तनिक बढ़ा था
पर उसपर तो गोरा हिमगिरि सा अड़ा खड़ा था
कहा ज़फर से एक कदम भी आगे बढ़ न सकोगे
यदि आदेश न माना तो कुत्ते की मौत मरोगे
रत्न सिंह तो दूर ना उनकी छाया तुहे मिलेगी
दिल्ली की भीषण सेना की होली अभी जलेगी
यह कह के महाकाल बन गोरा रण में हुंकारा
लगा काटने शीश बही समर में रक्त की धारा
खिलजी की असंख्य सेना से गोरा घिरे हुए थे
लेकिन मानो वे रण में मृत्युंजय बने हुए थे
पुण्य प्रकाशित होता है जैसे अग्रित पापों से
फूल खिला रहता असंख्य काटों के संतापों से
वो मेवाड़ी शेर अकेला लाखों से लड़ता था
बढ़ा जिस तरफ वीर उधर ही विजय मंत्र बढ़ता था
इस भीषण रण से दहली थी दिल्ली की दीवारें
गोरा से टकरा कर टूटी खिलजी की तलवारें
मगर क़यामत देख अंत में छल से काम लिया था
गोरा की जंघा पर अरि ने छिप कर वार किया था
वहीँ गिरे वीर वर गोरा जफ़र सामने आया
शीश उतार दिया धोखा देकर मन में हर्षाया
मगर वाह रे मेवाड़ी गोरा का धड़ भी दौड़ा
किया जफ़र पर वार की जैसे सर पर गिरा हतोड़ा
एक बार में ही शाही सेना पति चीर दिया था
जफ़र मोहम्मद को केवल धड़ ने निर्जीव किया था
ज्यों ही जफ़र कटा शाही सेना का साहस लरज़ा
काका का धड़ लख बादल सिंह महारुद्र सा गरजा
अरे कायरो नीच बाँगड़ों छल में रण करते हो
किस बुते पर जवान मर्द बनने का दम भरते हो
यह कह कर बादल उस छन बिजली बन करके टुटा था
मनो धरती पर अम्बर से अग्नि शिरा छुटा था
ज्वाला मुखी फहत हो जैसे दरिया हो तूफानी
सदियों दोहराएंगी बादल की रण रंग कहानी
अरि का भाला लगा पेट में आंते निकल पड़ी थीं
जख्मी बादल पर लाखो तलवारें खिंची खड़ी थी
कसकर बाँध लिया आँतों को केशरिया पगड़ी से
रण चक डिगा न वो प्रलयंकर सम्मुख मृत्यु खड़ी से
अब बादल तूफ़ान बन गया शक्ति बनी फौलादी
मानो खप्पर लेकर रण में लड़ती हो आजादी
उधर वीरवर गोरा का धड़ आर्दाल काट रहा था
और इधर बादल लाशों से भूदल पात रहा था
आगे पीछे दाएं बाएं जैम कर लड़ी लड़ाई
उस दिन समर भूमि में लाखों बादल पड़े दिखाई
मगर हुआ परिणाम वही की जो होना था
उनको तो कण कण अरियों के सोन तामे धोना था
अपने सीमा में बादल शकुशल पहुच गए थे
गारो बादल तिल तिल कर रण में खेत गए थे
एक एक कर मिटे सभी मेवाड़ी वीर सिपाही
रत्न सिंह पर लेकिन रंचक आँच न आने पायी
गोरा बादल के शव पर भारत माता रोई थी
उसने अपनी दो प्यारी ज्वलंत मनियां खोयी थी
धन्य धरा मेवाड़ धन्य गोरा बादल अभिमानी
जिनके बल से रहा पद्मिनी का सतीत्व अभिमानी
जिसके कारन मिट्टी भी चन्दन है राजस्थानी ।
दोहराता हूँ सुनो रक्त से लिखी हुई क़ुरबानी ॥

- पंडित नरेंद्र मिश्र -

Sunday, October 8, 2017

भारत देश को बुलेट-ट्रेन(=तूर्णी)की नहीं, मंदिरों की आवश्यकता है ॥

भारत देश को बुलेट-ट्रेन(=तूर्णी)की नहीं, मंदिरों की आवश्यकता है ॥
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देखिये !!!!
१) वृंदावन में 300 करोड़ रुपये की लागत से श्री-कृष्ण जी के 213 मीटर ऊंचे चंद्रोदय-मंदिर का निर्माण इस्कॉन द्वारा किया जा रहा है जिसका निर्माण पूरा होने में पांच वर्ष लगेंगे |
ऐसा नहीं है की वृन्दावन में मंदिर(रों) की कमी है लेकिन जितनी बुलेट ट्रेन की निंदा/समीक्षा/आलोचना हुई उतनी इस मंदिर की नहीं हुई | उल्लेखनीय है कि इस मंदिर का शिलान्यास राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी जी ने किया था |
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२) बिहार के पूर्वी चम्पारण स्थित केसरिया में विराट रामायण मंदिर 500 करोड़ रूपये की लागत से बनाया जाएगा और जब तक इसका निर्माण पूर्ण होगा तब तक इसकी लागत बढ़ेगी ही
३) देश में ऐसे अन्य कई कई मंदिर करोड़ों की लागत से बनते रहते हैं जिनकी गणना ही नहीं है
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बुलेट-ट्रेन का विरोध करने वाले बतायें इन मंदिरों की उपयोगिता कितनी है ?
क्या ये मन्दिर आने वाले समय में रोहिंग्या या कासिम/गौरी के लिए बनाये जा रहे हैं ?
क्या हमें गुरुकुल, विद्यालय या गौ-शालाओं की आवश्यकता नहीं है ?
आवश्यकता है वेदपाठी ब्रह्मचारी, धर्म-रक्षक, विविध मतों के बीच तुलनात्मक अध्यन करने में कुशल, तर्कशील लोगों की फ़ौज बनाने की ताकि लव-जिहाद को रोका जा सके |
सोमनाथ मन्दिर के समय तो हिन्दुओं में केवल ज्योतिष/मुहूर्त ही एक बाधक थी लेकिन आज तो अधिकान्श हिन्दुओं के गले/बांह में ताबीज बंधा है, लगभग हर हिन्दू का माथा कबर के आगे झुकता है, हर हिन्दू कहता है "सब धरम समान/अच्छे हैं" ऐसी विचारधारा हो तो फिर 'ये मन्दिर कभी किसी के हाथों नहीं लूटेंगे' इस अति-विश्वास में मत बैठिएगा
विचार करें
धन्यवाद
विदुषामनुचर
विश्वप्रिय वेदानुरागी

Thursday, September 28, 2017

ईश्वर की र्वव्यापकता - आर्यसमाज के यशस्वी दार्शनिक विद्वान् श्री पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी

आर्यसमाज के यशस्वी दार्शनिक विद्वान् श्री पंडित गंगा प्रसाद जी उपाध्याय जी एक बार अपने उपदेश में ईश्वर की र्वव्यापकता का मंडन व मूर्ति पूजा का खंडन कर चुके तो उस सभा में ही एक श्रोता ने खड़े होकर प्रश्न कर दिया

"
तुम वेद के ठेकेदारों से हैं, यह मेरा सवाल कण-कण में खुदा हैं तो मूर्ति में क्यूँ नहीं ?
-श्री उपाध्याय जी ने प्रश्न सुनकर पूछा कि:-
प्रश्न 
का उत्तर तुम्हारी तरह पद्य में दूँ या गद्य में ?
प्रश्नकर्ता ने कहा कि मजा तो इसी में हैं कि आप उत्तर भी मेरी तरह पद्य में ही दें.
-तब पंडित जी ने उत्तर देते हुए कहाँ:- "तुम पुराण के ठेकेदारों को हैं यह मेरा जवाब,
-मूर्ति में खुदा तो हैं पर तुम तो उसमें हो नहीं.
प्रश्नकर्ता पौराणिक था व उसका तात्पर्य यह था कि जब ईश्वर सर्वव्यापक हैं, तो वह मूर्ति में भी स्वत: सिद्ध होता हैं. जब मूर्ति में ईश्वर का होना सिद्ध हो गया, तो मूर्ति कि पूजा ईश्वर कि पूजा हो तो सिद्ध होती हैं. फिर मूर्ति पूजा का विरोध या निषेध क्यूँ किया जाता हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर हैं कि ईश्वर अति सूक्षम हैं.वह दृश्यमान नहीं हैं , साकार नहीं हैं. रंग, रूप व आकार आदि गुण प्रकृति से बनाए सृष्टि के दृश्यमान पदार्थों के हैं. ईश्वर के नहीं हैं. साकार मूर्ति ईश्वर ने नहीं बनाई. ईश्वर ने प्रकृति से पत्थर बनाए तथा मनुष्य ने पत्थर से मूर्ति बनाई. प्रकृति, पत्थर व मूर्ति में अपने अन्तर्यामी व सर्वव्यापक गुणों के कारण से ईश्वर तो विद्यमान हैं, यह सत्य हैं परन्तु इन सब में से कोई भी ईश्वर नहीं हैं, यह भी सत्य हैं. इसे इस प्रकार भी कहाँ जा सकता हैं
कि मूर्ति में ईश्वर हैं, परन्तु मूर्ति- मूर्ति ही हैं, वह ईश्वर नहीं हैं. सर्वव्यापक निराकार ईश्वर कि मूर्ति बन भी नहीं सकती क्यूंकि एक मूर्ति में न सिमट सकने वाले ईश्वर को आप कैसे सीमित कर सकते हैं. इसके विपरीत आत्मा ईश उपासना या भक्ति करना चाहता हैं. वह ईश्वर कि तरह न तो अन्तर्यामी हैं तथा न ही सर्वव्यापक हैं. हमारे ह्रदय में आत्मा हैं. आत्मा ईश्वर के निकट विद्यमान हैं. आत्मा का ईश्वर से मिलना, योग व समाधी में अनुभूति द्वारा ही संभव हैं .ह्रदय से बाहर मूर्ति में विराजमान ईश्वर का मिलन विभिन्न स्थान होने से कैसे संभव हैं ? दो व्यक्तियों का मिलना पृथक- पृथक स्थानों पर होने
से संभव ही नहीं हैं .जब दोनों व्यक्ति एक स्थान पर आये तो ही उनका मिलन होगा. प्रत्यक्ष: में भी हम यही देखते हैं.
मनुष्य में आत्मा केवल और केवल उसके ह्रदय में ही हैं और ह्रदय में ही रहेगी. आत्मा सर्वव्यापक नहीं हैं. वह पत्थर कि मूर्ति में भी नहीं हैं और अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती. अत: आत्मा और परमात्मा का मिलन मूर्ति में नहीं हो सकता. जब एक वस्तु हमारे निकटतम हो तो उसे प्राप्त करने के लिए दूर जाने कि आवश्यकता ही नहीं हैं. अल्पज्ञों को यह बात समझ
नहीं आती व वे मूर्ति को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं. 
गीता में १८/६१ में कहाँ भी गया हैं कि हे अर्जुन!
ईश्वर सभी प्राणियों के ह्रदय में स्थित हैं.
यजुर्वेद ४०/५ में ईश्वर के विषय में कहाँ गया हैं- वह दूर भी हैं, वह समीप भी हैं, वह भीतर भी हैं, वह बाहर भी हैं. अज्ञानी लोग ईश्वर को आत्मा से दूर मानते हैं इसीलिए ईश्वर को वे पत्थरों में, पेड़ों में, चित्रों में,नदियों में,तीर्थों में,चौथें आसमान पर, सातवें आसमान पर, कैलाश पर, क्षीर सागर पर, गोलोक में होना मानते हैं. किन्तु सच्चे आस्तिकों, योगियों व विद्वानों के
विचार में ईश्वर हमारे भीतर आत्मा में ही मिलते हैं. हम उसमें हैं और वह हममें हैं. इससे अधिक निकटता- समीपता अन्य किसी भी दो वस्तुयों में नहीं हैं. अत: ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आत्मा से बाहर जाने कि आवश्यकता नहीं हैं. हमारा ईश्वर हमारी आत्मा में ही हैं. आत्मा बाहर मूर्ति में जा नहीं सकती. उपासना का सही अर्थ हैं निकट बैठना और हमारे ह्रदय में आत्मा ही ईश्वर के समीप बैठ सकती हैं. मूर्ति कि आकृति को व्यक्त किया जा सकता हैं जबकि ईश्वर के निराकार होने के कारण उनके रूप को व्यक्त नहीं किया जा सकता. वेदांत दर्शन के ३/२/२३ में और कठोपनिषद २/३/१२ में लिखा हैं कि ईश्वर वाणी, मन , नेत्रों से प्राप्त नहीं किया जा सकता. इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्द शास्त्रथ महारथी पंडित राम चन्द्र दहेलवी का कथन कि “हम ईश्वर को मूर्ति के भीतर अ बाहर स्वीकार करते हैं. हम मूर्ति का खंडन नहीं अपितु मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं. जब ईश्वर सर्वत्र हैं तो मूर्ति के भीतर वाले ईश्वर को ही आप क्यों पूजना चाहते हैं? मूर्ति के बाहर वाले ईश्वर को आप क्यों नहीं पूजना चाहते? मान लीजिये, आप मुझे मिलने आये हैं तथा मैं आपको अपने द्वार के बाहर ही मिल जाऊ तो मुझसे मिलने में आपको अधिक सुविधा होगी अथवा मेरे भीतर होने पर होगी. भगवान् तो सब जगह हैं उससे बाहर ही मिल लीजिये, व्यर्थ में
मूर्ति के अन्दर वाले के पीछे क्यों पड़े हैं? आप मूर्ति में दाखिल नहीं हो सकते और मूर्ति वाला ईश्वर बाहर नहीं आ सकता. क्यों मुश्किल में पड़ते हो? सरल काम कीजिये और मूर्ति से बाहर वाले कि पूजा कर लीजिये. मूर्ति में ईश्वर को व्यापक मानकर मूर्ति कि पूजा करने वालों से हमारा यह अनुरोध हैं कि ईश्वर मूर्ति से बाहर भी सर्वत्र हैं व हमारे ह्रदय में तो वह अन्तर्यामी होने से अत्यंत निकट हैं. ईश्वर को बाहर तलाशने वालों के लिए यह भजन कि पंक्तियाँ प्रेरणादायक हैं 
"तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान, किसने देखी तेरी सूरत, कौन बनाए तेरी मूरत ?
तू ही निराकार भगवान् बना मन मंदिर आलीशान.....

Saturday, September 23, 2017

श्राद्ध - तर्पण विचार

॥ओ३म्॥
श्राद्ध - तर्पण विचार
पञ्च महायज्ञ में द्वतीय तर्पण नामक पितृयज्ञ है । उसी का अवान्तर भेद श्राद्ध है । पितृयज्ञ के भेदों में तर्पण सामान्य कर भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःखों की निवृत्तिरूप तृप्ति वा प्रसन्नता , मन में पूरा सन्तोष वा आनन्दरूप माना जाता है । और श्राद्ध नाम कर्मविशेष का है कि जिस कर्म के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःखों से निवृत्त होते हैं । श्रद्धा से जिस कारण दिया जाता है, इसलिये इस पितृसम्बन्धि दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं । अथवा श्रद्धा पूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम भी श्राद्ध हो सकता है । इसी अर्थ से श्राद्धभोजी शब्द सार्थक बन जाता है कि श्राद्ध-नाम श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला । तथा इसी विचार के अनुसार पाणिनीय सूत्र "श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ" घट जाता है कि जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो , वह श्राद्धि वा श्राद्धिक कहावेगा । यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है । इसी प्रमाण से श्राद्ध शब्द भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम है , यह निश्चित होता है - यही सत्य सिद्धान्त है ।।
श्राद्ध में पितर कौन ?
अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस पर सङ्क्षेप में विचार करते हैं । नीति में लिखा है कि - 'उत्पादक , यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता , अन्न्दाता और भय से बचाने वाला , ये पञ्च पिता या पितर माने गये हैं (जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ....... ।।) इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पाद पिता या पितर में रूढ़ि भी है । सामान्य जन पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते । परंतु विशेष व्यवहार में नीति से प्रकरणानुसार अर्थ ग्रहण होते हैं । परन्तु श्राद्धकर्म में विशेषकर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है , और अपने पिता (उत्पादक) की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए - अन्यथा वह कृतघ्न है । और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये , वही श्राद्ध है ।।
श्राद्ध और ऋतु विचार
शरद्धेमन्तः शिशिरस्ते पितरः ।। शतपथ ।। से शरद को पितरों की ऋतु कहा है अतः इसी में श्राद्ध अभीष्ट है - अब इस विचार के समाधान में बल लगाया जाता है - श्राद्ध कर्म विधि वाक्यों द्वारा स्मृति में उत्सर्गरूप से प्राप्त है परंतु अपवाद रूप से नैमित्तिक श्राद्ध भी कहा गया है - जो प्रतिदिन श्राद्ध में समर्थ नहीं है या जिसे पितर नित्य - नित्य प्राप्त नहीं उसके लिये नैमित्तिक श्राद्ध अपवाद रूप से प्राप्त है - उतसर्ग से अपवाद का क्षेत्र अल्प है अतः नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत था - ऐसा पाणिनीय सूत्र "श्राद्धे शरदः" से प्रतीत होता है । इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् होता है । अतः शरद् में होने वाले श्राद्ध को ही शारदिक कहेंगे यद्यपि अन्य कार्य शारद कहायेंगे । परन्तु इस सूत्र से यह तात्पर्य कभी नहीं है कि शरद् में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाये वा अन्य ऋतु में श्राद्ध होता ही नहीं - किन्तु सूत्र का अभिप्राय मात्र इतना ही है अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न होकर अण् ही हो ।।
।। ओ३म् ।।

Thursday, September 21, 2017

Ved-Mantra MEMORIZE Challenge



Ved-Mantra MEMORIZE Challenge
नवरात्री आ गयी
नवरात्री के नौ दिन पौराणिक व्यक्ति नियम से (1)उपवास करेंगे, (2) नित्य माताजी के मन्दिर जायेंगे, घंटा बजायेंगे (2) चंडी-पाठ करेंगे, दुर्गा सप्तशती पढेंगे आदि आदि
लेकिन ......लेकिन
आप क्या करेंगे ??
आप तो पौराणिक हैं नहीं !!!! फिर क्या खाली बैठे रहेंगे ???
नहीं नहीं !!!
खाली बैठने वाले को वेद में दस्यु कहा है | ऋग्वेद 10/22/8 मन्त्र में कहा है "अकर्मा दस्यु:" अर्थात् कर्म न करने वाला लेकिन हम तो आर्य हैं और आर्य का मतलब होता है श्रेष्ठ | श्रेष्ठ वह व्यक्ति होता है जो निर्माण करे....कुछ नया सीखे, आगे बढ़े आदि
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तो नौ दिनों में हम क्या करें ?
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नौ दिनों में हम वेद के नौ मन्त्रों को याद करेंगे |
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वेद के बहुत सारे मन्त्रों में से कोई भी नौ मन्त्र चुन लीजिये और याद कीजिये | प्रतिदिन एक मन्त्र याद कीजिये |
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यदि मन्त्र पहले से याद हैं तो Challenge के तीन स्तर नीचे अनुसार हैं उसमें अपने आपको परखें :-
मान लीजिये, आपको ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मन्त्र और गायत्री मन्त्र याद है तो हो गए नौ | इन नौ मन्त्रों को नीचे के चुनौती स्तर से परखें |
१) कंठस्थ मन्त्रों को पुस्तक के साथ पढ़ें, पुस्तक सामने रख कर धीरे-धीरे मन्त्र देख कर पढ़ें और स्वयं देखें की कहीं गलती तो नहीं हो रही, कहीं छोटी मात्रा (ह्रस्व) को बड़ी मात्रा (दीर्घ) न बोलें, आधे अक्षर को पूरा न बोलें आदि-आदि | यदि कोई उच्चारण दोष हो तो सुधारें |
२) यदि पहले स्तर को पार कर लें तो ......चुनौती का दूसरा स्तर है मन्त्र याद करने के बाद उसे लिख कर देखें की कहीं दोष तो नहीं है | जो पढ़ा है वही याद है या कुछ और ............और जो याद है वही लिखा जा रहा है या कुछ और ? ऐसे करके अपने आपको परखें | परखेंगे तो निखरेंगे और बन जायेंगे आर्य | महात्मा प्रभुआश्रित जी ध्यान की अलग-अलग विधियों में एक विधि यह भी बतलाते हैं की साधक अपनी बन्द आँखों के सामने मन्त्र लिखे और ओ३म् जाप करता रहे | ठीक इसी तरह आप भी कागज पर मन्त्र लिख कर देखें और फिर मिलान करें पुस्तक के साथ | यदि कोई दोष हो तो उसे सुधारें, फिर दुबारा लिखें और तब तक यही क्रम जारी रखें जब तक आपका लेखन शुद्ध न हो जाए |
३) चुनौती का अगला स्तर है मन्त्र के अर्थ को याद करना, अर्थ को समझना, उसकी व्याख्या को पढ़ना, मनन करना आदि |
.
तो आइये ! नवरात्री के नौ दिनों में नीचे के चुने हुए मन्त्र याद करें और अपना जीवन वेद की रक्षा में लगायें |
1)
ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ |
अधा ते सुम्नमीमहे | (ऋग्वेद 8/98/11)
अर्थात् :- हे बहुविध उद्यमों को कर, सबको बसाने वाले परमात्मन् ! तू ही हमारा जनक है और तू ही हमारी जननी है, अतः हम तेरा अपने प्रति सु-मन, सुष्ठु-मन चाहते हैं, तेरी अपने प्रति शुभ-कामनाएँ (Good Wishes) चाहते हैं |
.
2)
ओ३म् उपह्वरे गिरिणां संगथे च नदीनाम् |
धिया विप्रो अजायत || (ऋग्वेद 8/6/28)
अर्थात् :- पर्वतों के समीप वा पर्वतों की उपत्यकाओं में और नदियों के संगम पर ध्यान करने अर्थात् योगाभ्यास करने से मनुष्य विप्र-ज्ञानी, मेधावी, विवेकी, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है |
.
3)
मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः |
मान्तः स्थुर्नो अरातय: || (ऋग्वेद 10/57/1)
अर्थात् :- हे परमेश्वर ! हम सत्पथ से कभी विचलित न हों | हम ऐश्वर्यशाली हो कर यज्ञ आदि शुभ कार्यों से कभी विचलित न हों | यज्ञादि शुभ कर्मों में बाधा उत्पन्न करने वाले अराति भाव - अदानभाव , स्वार्थभाव या काम-क्रोध आदि शत्रु हमारे भीतर न रहें |
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4)
ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च || यजुर्वेद अध्याय 16 मन्त्र 41
अर्थात् :- जो सुखस्वरूप संसार के उत्तम सुखों का देनेवाला कल्याण का कर्त्ता मोक्षस्वरूप , धर्मयुक्त कामों को ही करनेवाला अपने भक्तों को सुख का देने वाला और धर्म-कामों में युक्त करनेवाला, अत्यन्त मङ्गल स्वरूप और धार्मिक मनुष्यों को मोक्षसुख देने हारा है उसको हमारा बारम्बार नमस्कार हो |
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5)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः |
उशतीरिव मातर: || (सामवेद 1838)
अर्थात् :- हे सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी प्रभो ! जो आपका अत्यन्त कल्याणकारी रस है, उसका इस मानव चोले में हमें बच्चों का कल्याण करना चाहनेवाली माताओं के समान सेवन कराओ |
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6)
उपहूतो वाचस्पतिरूपास्मान् वाचस्पतिर्ह्वयताम्
सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि || (अथर्ववेद 1/1/4)
अर्थात् :- परमात्मा या आचार्य को हमने अपनी समीपता के लिए बुलाया है, वाचस्पति भी हमको अपने समीप बुलाकर रखे, सुने हुए ज्ञान के साथ हमारा संयोग रहे, ज्ञान से मेरा वियोग न हो |
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7)
अनुव्रतः पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना: |
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् || (अथर्ववेद 3/2/2)
अर्थात् :- पुत्र पिता का अनुव्रती हो, पिता के अनुकूल कर्म करनेवाला हो, माता के साथ समान मनवाला - एक मनवाला हो, पत्नी पति मधुमयी शान्तियुक्त वाणि बोलें ||
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8)
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा |
समयञ्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया || (अथर्ववेद 3/30/3)
अर्थात् :- भाई-भाई से द्वेष न करे और बहन बहन से द्वेष न करे | तुम सब एक मतवाले और एक व्रतवाले होकर परस्पर भद्र वाणी बोलें |
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9)
ओ३म् अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति,
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति || (अथर्ववेद 10/8/32)
अर्थात् :- मनुष्य ! समीप विराजमान भगवान् को न छोड़ता हुआ है, और समीप विद्यमान भगवान् को न देखता है | दिव्य देव के काव्य को देखो, जो न कभी मरता है और न जीर्ण होता है|
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10) विजयादशमी का :-(एक अतिरिक्त मन्त्र)
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयनतां पावमानी द्विजानाम् | आयु: प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् | मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् || (अथर्ववेद 19/71/1)
अर्थात् :- हे मनुष्यों ! द्विजों को पवित्र करनेवाली वरदा वेदमाता मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई वा स्तुत की गई है तुम भी उसका प्रचार करो, उससे औरों को प्रेरित करो | यह आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन-बल और ब्रह्मतेज-ब्रह्मबलरूप वरों को देनेवाली है | तुम यह सब-कुछ मुझे प्रदान कर ब्रह्मलोक की ओर चलो |
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मन्दिर में कलश-स्थापन या घट-स्थापन हुआ है वैसे ही आप नवरात्री के दिनों में नौ मन्त्र याद करने का संकल्प स्थापन करें और वेद रक्षा में अपना योगदान दें |
धन्यवाद
विदुषामनुचर
विश्वप्रिय वेदानुरागी







Wednesday, August 9, 2017

वेद की नित्यता (ETERNITY) का परम् प्रमाण



॥ओ३म्॥

वेद की नित्यता (ETERNITY) का परम् प्रमाण

*सत्यम शिवं शाश्वतम्* यानी आज की भाषा में प्रसिद्ध सिद्धांत *survival of the fittest* अर्थात जो वस्तु सबसे अधिक उपयोगी है वह उस समय भी जीवित रहती है जब अन्य अनुपयोगी या कम उपयोगी वस्तुएं नष्ट हो जाती है । आप 100 rs के नॉट की सेर भर मिठाई की अपेक्षा से अधिक रक्षा करते हैं क्यों कि नोट मिठाई की अपेक्षा से अधिक उपयोगी है । कुदरत अर्थात सृष्टि नियम भी उसी वस्तु की अधिक रक्षा करती है जो योग्यतम होती होती है । वेद सबसे पुराने है ।लाखों ग्रन्थ बने और नष्ट हो गए । हज़ारों धर्मशास्त्र बने और लुप्त हो गए । परन्तु इतने पुराने होते हुए भी वेद विद्यमान है । इस से ज्ञात होता है कि वेद योग्यतम ग्रन्थ हैं । योग्यतम न होते तो इस नियम से कभी के नष्ट हो गए होते । इनका पुराना होना ही इनकी योग्यता तथा उपयोगिता का प्रमाण है । दीर्घकाल में भिन्न भिन्न देशों में सैंकड़ों मत मतांतर और धर्मशास्त्र बने और बिगड़ गए । कराल काल के थपेड़ों से बचे रहना बताता है की कुदरत वेदों की रक्षा करती है । जैसे सैंकड़ों तूफ़ान जिन से बड़े बड़े मनुष्य निर्मित दीपक बुझ जाते हैं किन्तु सूर्य को नही बुझा सकते इसी प्रकार वेद भी है ।

- लेखनी सम्राट पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

Sunday, August 6, 2017

विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका





॥ ओ३म् ॥

विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका

आज हम इतिहास के जिस युग में यात्रा कर रहे हैं, वह मानवता के इतिहास में अब तक का सबसे अधिक चुनौती पूर्ण और विसंगति से भरा हुआ समय है। मानव समय-समय पर अनेक प्रकार के अभावों से जूझता रहा है, विज्ञान के विकास के कारण आज जबकि हम पहले से कहीं अधिक प्रकृति की प्रतिकूलता का सामना कर सकने की स्थिति में हैं, परन्तु फिर भी सुखी हेने के स्थान में विश्व अधिक दुःखी है, अधिक अभावों से भरा हुआ है। यद्यपि नित नये उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के सम्प्रदाय सुखी होने का मन्त्र हमें देते रहते हैं, लेकिन मनुष्य की समस्यायें अन्त होने के स्थान पर सुरसा के मुख की भाँति दीर्घ दीर्घतर होती चली जा रही हैं। आज जिस रूप में धर्म को परिभाषित किया जा रहा है और उसका अनुष्ठान पहले की अपेक्षा अधिक कठोरता से किया भी जा रहा है, परन्तु मनुष्य पर इतने अधिक दबाव हैं कि वह चाहकर भी अपनी इस अशान्ति का कोई समाधान ढ़ूँढने में असफल रहा है। इसका यह तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है कि या तो धर्म शक्तिहीन हो गया है या फिर धर्म मिथ्या या फिर जिस प्रकार धर्म को समझना चाहिये और समझकर आचरण में लाना चाहिये, यह सारी प्रत्रिया दोषपूर्ण है।
आचार्य मनु धर्म का लक्षण देते हुए कहते हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमत्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।15।।[1]
विश्वशान्ति की दृष्टि से मनु के उक्त धर्म के लक्षण में सभी तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, उसमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन आज का विश्व इसमें क्षमा, अस्तेय, सत्य और अत्रोध (शान्ति) को अपने जीवन में उतार ले तब भी मानवता का शान्ति का पथ प्रशस्त हो सकता है।
महर्षि दयानन्द धर्म और अधर्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- जो पक्षपातरहित, न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञापालन, परोपकार करना रूप ‘धर्म’ जो इससे विपरीत वह ‘अधर्म’ कहाता है क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्यों कर न कहावेगा? देखो! किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है। यही पक्षपात से मिथ्या और विरुद्धाचार अधर्म और जब तीसरे ने दोनों से पूछा कि सत्य बोलना धर्म अथवा असत्य? तब दोनों ने उत्तर दिया कि सत्य बोलना धर्म और असत्य बोलना अधर्म है, इसी का नाम धर्म जानो परन्तु यहाँ पाँच परीक्षा की युक्ति से सत्य और असत्य का निश्चय करना योग्य है।[2]
महर्षि ने समस्या का साक्षात्कार करते हुए कहा है-‘किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है।’[3] समस्या का मूल कारण यह है कि हम सोचते हैं कि जो मैं मानता हूँ, वह सत्य और हितकारी और जो मेरे लिये हितकारी है, वही सबके लिये हितकारी और पथ्य है। उसको मनवाने और लागू करने के लिये हम अपनी सारी शक्ति झोंक देते हैं और दण्ड के बल पर मनवाकर ही दम लेते हैं। विश्व अशान्ति को बढ़ावा देने में अकेले इस तथ्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस समस्या के परिहार के लिये मनु ने रास्ता सुझाया है, वे धर्म की एक और परिभाषा देते हुए कहते हैं-
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।[4]
उक्त धर्म के लक्षण में यद्यपि मनु ने वेद, स्मृति और सदाचार को भी धर्म का आधार प्रतिपादित किया है। परन्तु चतुर्थ प्रकार ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’ के द्वारा धर्म के जिस रूप का प्रतिपादन किया है, उसका मापदण्ड बड़े-बड़े शास्त्र नहीं हैं, दूसरों के द्वारा आचरण में लाया गया आदर्श हेने के कारण प्रायः अग्राह्य रह जाने वाला आचरण नहीं है। धर्म के इस लक्षण में केवल इतना कहा गया है कि जो अपनी आत्मा को प्रिय है, वही व्यवहार हम दूसरों के साथ करें। धर्म की इससे सरल और ग्राह्य परिभाषा नहीं की जा सकती। कोई भी जीव यह नहीं चाहता कि हमें जबर्दस्ती किसी भी मार्ग पर चलने के लिये बाध्य किया जाए। यदि हमें किसी कर्म को करने के लिये बाध्य किया जाता है, तो हम भले ही प्रतीकार न कर पायें, पर मन ही मन दुःखी होते हैं। सभ्य मनुष्यों की भाषा में इसीका नाम गुलामी है। हम किसीके अपराध को ही क्षमा न करें, हम उसके अस्तित्व को भी स्वीकार करें और यह मानें जितना इस विश्व में मेरा अधिकार है, उतना ही दूसरे का है। यही न्याय और पक्षपातरहित स्वीकृति धर्म है और इसका मूल है-क्षमा।
जहाँ भारतीय धर्म इतना अधिक सहनशील है कि वह दूसरे के अस्तित्व के साथ-साथ उसके अधिकार को भी स्वीकृति प्रदान करता है, वहीं इस्लाम इतना अधिक असहनशील है कि वह अपने और अपने स्वार्थ के अलावा किसी को मानने को तैयार नहीं है। कुरान में लिखा है-‘अल्लाह के मार्ग में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं। मार डालो तुम उनको जहाँ पाओ, कतल से कुप्र बुरा है। यहाँ तक कि उनसे लड़ो कि कुप्र न रहे और होवें दीन अल्लाह का।। उन्होंने जियादती करी तुम पर उतनी ही तुम उन के साथ करो।।’[5]
महर्षि दयानन्द कुरान के उक्त वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में कहते हैं-‘जो कुरान में ऐसी बातें न होती तो मुसलमान लोग इतना बड़ा अपराध जो कि अन्य मत वालों पर किया है न करते, और विना अपराधियों को मारना उन पर बड़ा पाप है। जो मुसलमान के मत का ग्रहण न करना है उसको कुप्र कहते हैं अर्थात् कुप्र से कतल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। अर्थात् जो हमारे दीन को न मानेगा उसको हम कतल करेंगे सो करते ही आये, मजहब पर लड़ते-लड़ते आप ही राज्य आदि से नष्ट हो गये और उनका मत अन्य मतवालों पर अतिकठोर रहता है। क्या चोरी का बदला चोरी है? कि जितना अपराध हमारा चोर आदि करें क्या हम भी चोरी करें? यह सर्वथा अन्याय की बात है। क्या कोई अज्ञानी हमको गालियाँ दे क्या हम भी उसको गाली देवें? यह बात न ईश्वर की और न ईश्वर के भक्त विद्वान् की और न ईश्वरोक्त पुस्तक की हो सकती है। यह तो केवल स्वार्थी ज्ञानरहित मनुष्य की है।।36।।’[6]
आज जो विश्व में अशान्ति है, उसका मुख्य कारण यही है कि जो हमारी बात नहीं मानेगा, उसको हम जीने नहीं देंगे। इसी दुप्रवृत्ति का कुफल आज का आतंकवाद है। कुरान में एक अन्य स्थान पर कहा है-‘बस मत कहा मान काफिरों का, और झगड़ा कर उनके साथ झगड़ा बड़ा।। और बदल डालता है अल्लाह बुराइयों उनकी को भलाइयों से।।’[7] जो खुदा, पैगम्बर और कुरान को नहीं मानते वे काफिर हैं। इन तीनों को न मानने वाले हरेक व्यक्ति से झगड़ा करने की प्रेरणा कुरान दे रही है। और वह स्पष्ट रूप से काफिरों गर्दनों पर मारने का निर्देश देती हुई कहती है-‘बस जब तुम मिलो उन लोगों से कि काफिर हुए बस मारो गर्दनें उनकी यहाँ तक कि जब चूर कर दो उनको बस दृढ़ को कैद करना।। और बहुत बस्तियाँ हैं कि वे बहुत कठिन थीं शक्ति में बस्ती तेरी से, जिसने निकाल दिया तुझ को मारा हमने उसको, बस न कोई हुआ सहाय देने वाला उनकी।। तारीफ उस बहिश्त की कि प्रतिज्ञा किये गये हैं परहेजगार, बीच उसके नहरें हैं बिन बिगड़े पानी की, और नहरें हैं दूध की कि नहीं बदला मजा उनका, और नहरें हैं शराब की मजा देने वाली वास्ते पीने वालों के, और नहरें हैं शहद साफ किये गये की, और वास्ते उनके बीच उसके मेवे हैं प्रत्येक प्रकार से दान मालिक उनके से।।’[8] ‘और काटें जड़ काफिरों की।। मैं तुम को सहाय दूँगा साथ सहस्र फरिश्तों के पीछे-पीछे आने वाले।। अवश्य मैं काफिरों के दिलों में भय डालूँगा, बस मारो ऊपर गर्दनों के मारो उनमें से प्रत्येक पोरी (संधि) पर।।’[9]
आज इस्लाम विश्व का सबसे बड़ा सम्प्रदाय है, उसके सबसे अधिक अनुयायी हैं। जब लगभग विश्व की 40 प्रतिशत आबादी आतंक की शिक्षा घुट्टी में प्राप्त कर रही है, उनको यह सिखाया जा रहा है कि काफिरों को मारने से बहिश्त मिलता है, तभी 11 सितम्बर वाली घटनायें घटित होती हैं। इसलिये मनु की क्षमाशीलता विश्वशान्ति की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। यदि मानव क्षमाशील हो जाए, जैसा वह अपने लिये चाहता है, वही दूसरों के साथ व्यवहार करे तो विश्वशान्ति काफी कुछ सुरक्षित हो सकती है।
मनु के धर्म के लक्षण में विश्वशान्ति की दृष्टि से दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु ‘अस्तेय’ है। स्तेय का अर्थ चोरी करना है, जबकि अस्तेय चोरी न करने का नाम है।

[1]. मनु06.92.
[2]. व्यव0भा0
[3]. व्यव0भा0
[4]. मनु02.12.
[5]. मं01, सि02, सू02, आ0190-191, 193-194.
[6]. स0प्र0चतु0समु0
[7]. मं04, सि019, सू025, आ025, 52, 70, 71.
[8]. मं06, सि026, सू047, आ04, 13, 15.
[9]. मं02, सि09, सू08, आ07, 9, 12.

आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन


॥ ओ३म् ॥

आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन


प्रत्येक चिन्तनशील मनुष्य यह जानता है कि शरीर धारण करने वाला जीव सदा-सर्वदा के लिये इस धरा पर नहीं आया है। अनन्त यात्रा के एक पड़ाव के रूप में वह यहाँ कुछ समय के लिये ही रुक सकता है। जिसे यात्रा पर आगे जाना है, वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकता। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने अग्रिम यात्रा को यात्रा न रहने देने के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों को जीवन के लिये अपरिहार्य माना है। पुरुषार्थ शब्द से अभिप्राय हैः-पुरुष का प्रयोजन अर्थात् मानव जीवन का लक्ष्य।
साधारण मनुष्य अपने जीवन का प्रयोजन अर्थ और काम समझता है। यदि इस आधार पर मनुष्य और पशु का विश्लेषण करना चाहें तो ज्ञात होता है कि मनुष्य अर्थ और काम में से अर्थ को प्रधानता देता है, जबकि पशु काम को। जहाँ मनुष्य जड धन की उपासना में लगा रहता है, वहाँ पशु जडत्व से सर्वथा भिन्न शरीर की आवश्यकताओं तक सीमित रहता है। लेकिन मात्र काम अर्थात् विषय-वासनाओं की दृष्टि से भी यदि दोनों का मूल्याङ्कन करें तो मनुष्य ने इस दृष्टि से भी पशुओं को पीछे छोड़ दिया है।
भोगों को प्राप्त करने के लिये अर्थ की आवश्यकता होती है और उसे प्राप्त करने में मनुष्य धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, उचित-अनुचित का विचार नहीं करता है और यहीं से उसके पतन का प्रारम्भ हो जाता है। विना उचित रीति से अर्जित किया हुआ धन अर्थ न रहकर अनर्थ बन जाता है।
मनुस्मृति ने धर्म के निम्न दस लक्षण बताये हैः-
1. धृति, 2. क्षमा, 3. दम, 4. अस्तेय, 5. शौच, 6. इन्द्रिय-निग्रह, 7. धी, 8. विद्या, 9. सत्य, 10. अत्रोध।[1] इनमें से पाँचवाँ स्थान शौच अर्थात् अन्तः और बाह्य शुद्धि का है। शुद्धि का उपाय बताते हुए मनु कहते हैः-
‘सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।’[2]
सब प्रकार की शुचियों में अर्थ की शुद्धता सबसे बढ़कर है। जो अर्थ की दृष्टि से शुद्ध है, वही शुद्ध है, लेकिन जिसने अपने को मिट्टी, जल आदि साधनों से शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है।
यहाँ यह विचार करने का विषय है कि जिसने मिट्टी, जल, साबुन आदि से मलों को निर्मूल करने वाले साधनें से अपने को शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है, वरन् जिसने न्यायपूर्वक धन को अर्जित किया है, वह शुद्ध है, ऐसा क्यों? अपने आशय को स्पष्ट करते हुए तथा मन में उठने वाली उक्त शङ्का का समाधान करते हुए मनु कहते हैः-
‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।’[3]
शरीर की शुद्धि जल से होती है, मन की शुद्धि सत्य का आचरण करने से, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है, जबकि ज्ञान से बुद्धि निर्मल होती है। उक्त वक्तव्य से मनु ने स्पष्ट कर दिया है कि शरीर की शुद्धि का एकमात्र साधन जल है, जबकि अन्तःकरणसहित आत्मशुद्धि के साधन चार हैः-1. सत्य, 2. ज्ञान, 3. तप और 4. ब्रह्मविद्या। जो व्यक्ति सत्य और ज्ञान पर चल पड़ता है, वह अनीतिपूर्वक धन का अर्जन नहीं कर सकता या यह कह सकते हैं कि जिसे अपनी आत्मा को शुद्ध करना है, वह सत्य और ज्ञान की उपेक्षा नहीं कर सकता और सत्य एवं ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला अनीति का आश्रय कैसे ले सकता है?
छान्दोग्योपनिषद् कहती हैः-
‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिप्रतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्र्रमोचनम्।’[4]
भोजन की शुद्धि से बुद्धि निर्मल होती है। बुद्धि की निर्मलता से स्मृति निश्चल होती है और स्मृति की निश्चलता से सब ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं।
लोक में कहावत प्रचलित है कि ‘जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन’ इसीलिये सम्भवतः, प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, तपस्वी जन प्रत्येक के घर का भोजन स्वीकार नहीं करते थे। गुरु नानक देव के जीवन में एक ऐसा प्रसङ्ग आता है कि उन्होंने एक नितान्त निर्धन बढ़ई के घर में रूखी-सूखी रोटी खाना स्वीकार किया, परन्तु उस क्षेत्र के क्षेत्रपति के समृद्ध भोजन को खाने से मना कर दिया और उसके दुराग्रह करने पर बढ़ई लालो के घर की रोटी एक हाथ में तथा दूसरे हाथ में उसके घर की पूड़ी लेकर और निचोड़कर दिखा दिया कि बढ़ई का धन परिश्रम और ईमानदारी से अर्जित है, इसलिये उसमें से अमृत टपक रहा है, जबकि क्षेत्रपति का धन अन्यायपूर्वक, निर्धनों का शोषण करके अर्जित किया गया है, अतः, उसमें से रक्त प्रवाहित हो रहा है। इसलिये जब तक यह ज्ञात न हो जाये कि धन किस प्रकार अर्जित किया गया है, तब तक उस घर का अन्न, जल ग्रहण नहीं करना चाहिये।
इसी प्रकार का एक प्रसङ्ग काशी का है। पं0 गदाधर शास्त्री गङ्गा के तट पर स्थित एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे और उस पाठशाला से लगी भूमि पर खेती करके अपना और अपने परिवार का निर्वाह किया करते थे। कुछ समय पश्चात् पण्डित जी के घर पुत्र का जन्म हुआ। इस उपलक्ष्य में हिजड़ों ने आकर गाना बजाना किया, इस पर घर में लेटी हुई प्रसूता ब्राह्मणी ने उनसे कहा कि इस समय घर में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मैं तुम्हें उपहारस्वरूप दे सकूँ। इस पर वे बोले ब्राह्मणी कोई बात नहीं, यह बालक दीर्घायु हो, हम फिर कभी आकर अपना उपहार ले  जायेंगे। इस समय ब्राह्मणी ने अपने मन ही मन सङ्कल्प किया कि जब यह बालक युवा होकर प्रथम धन अर्जित करके लायेगा तो मैं उसे इन्हें दे दूँगी।
पण्डित जी का बालक कुछ काल में विद्वान् होगया। पण्डित जी किसी सेठ, साहूकार या राजा के घर जाते नहीं थे। राजा ने विद्वानों की सभा बुलायी, पण्डित जी का कोई शुभ-चिन्तक उस बालक को अपने साथ राजा की सभा में ले गया। जब सभा में पण्डितों को दक्षिणा दी जा रही थी, तो राजा ने पूछा कि यह बालक किसका है? एक सभासद् ने बताया कि यह पं0 गदाधर शास्त्री का सुपुत्र है। राजा ने उस बालक को पाँच सौ रूपये की थैली भेंट की। बालक ने वह लाकर खुशी-खुशी अपनी माँ को सौंप दी। जिस माता ने कभी दस रूपये न देखे हों, अचानक पाँच सौ रूपये पाकर मन में लोभ आगया। उसे हिजड़ों के लिये किया गया अपना सङ्कल्प स्मरण था, लोभ के कारण उसने उसके दो भाग कर दिये और ढाई सौ अपने पास रख लिये। आज पण्डित जी के लिये अनेक प्रकार के व्यञ्जन बनाये गये थे, पण्डित जी भोजन करके गङ्गा किनारे छात्रों को पढ़ाने चले गये और पढ़ाने के पश्चात् भगवान् के ध्यान में बैठे, परन्तु आज उनका मन ही नहीं लग रहा था।
पण्डित जी उठ खड़े हुए और घर आकर पत्नी से पूछा कि आज भोजन कहाँ से आया था? पत्नी ने बताया कि आज आपका बेटा राजदरबार गया था, वहाँ राजा ने पाँच सौ रूपये भेंट में दिये, लेकिन इसके जन्म के समय, जब हिजड़े नाचने-गाने आये थे, मैंने सङ्कल्प किया था कि युवा होने पर इसकी प्रथम कमाई को इन हिजड़ों को दे दूँगी, पर अधिक धन होने के कारण मैंने उसे आधा दे दिया और आधे रूपयों से भोजन की व्यवस्था की है। इस पर पण्डित जी बोले, प्रथम तो यह राजा का धन था, फिर यह हिजड़ों को हो गया, फिर भला मेरा मन कैसे एकाग्र हो सकता है। पण्डित जी ने बचा हुआ सारा धन बुलाकर हिजड़ों को दे दिया और स्वयं मन की शुद्धि के लिये उपवास प्रारम्भ कर दिया।
किस-किसका धन अग्राह्य है, इसका एक मापदण्ड प्रस्तुत करते हुए महाराज मनु कहते हैः-
‘दशसूनासमं चत्रं दशचत्रसमो ध्वनः।
दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो नृपः।’[5]
जो चत्र के द्वारा जीविका अर्जित करते हैं, जैसे-कुम्हार, गाड़ी, परिवहन से सम्बन्धित व्यवसाय करने वाले। इन लोगों के कार्य में जीव हिंसा अधिक होती है और प्राणियों का पालन और रक्षण कम होता है, उनके अन्न खाने वाले के मन पर दशहत्या करने के बराबर दूषित प्रभाव पड़ता है। जो मदिरा निकालकर बेचने वाले हैं, उन पर चत्र वाले अन्न की अपेक्षा दस गुना दुप्रभाव पड़ता है। जो लोग बाहर के दिखावे, वेशभूषा, आडम्बर और ढोंग से जीविका का उपार्जन करते हैं, उनका अन्न पहले से दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। मर्यादा का पालन न करने वाले राजा का अन्न वेशभूषा और बाह्य आडम्बर से आजीविका का उपार्जन करने वाले की अपेक्षा दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। सम्भवतः, इसीकारण मर्यादा का अतित्रमण करने वाले राजनेता राजनीति में प्रवेश करने के साथ ही भ्रष्ट और चरित्रहीन हो जाते हैं और आराध्य मानकर उनके आगे पीछे चक्कर लगाने वाली जनता भी उक्त दोषों से बच नहीं पाती है।
एक अन्य स्थल पर मनु कहते हैं कि वेद का स्वाध्याय और उपदेश, दान, यज्ञ, यम, नियमों का आचरण और तप का अनुष्ठान- ये सभी उत्तम आचरण, जिसकी भावना शुद्ध नहीं है, उसे कोई लाभ नहीं पहुँचा सकतेः-
‘वेदास्त्यागाश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।’[6]
महाभारत में युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए भीष्म पितामह कहते हैः-
‘अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कर्हिचित्।
इति सत्यं महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।’
हे युधिष्ठिर! मनुष्य अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। इसी अर्थ के कारण मैं कौरवपक्ष से बँधा हुआ हूँ। यहाँ भीष्म नीति और अनीति को जानते हुए भी सत्य का, जो युगधर्म भी है, साथ देने से कतरा रहे हैं। इसका कारण जो मनु ने बताया है, वही है कि राजा का अन्न अन्य किसी धन की अपेक्षा हजार गुना अधिक मन को दूषित कर देता है। आज का मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षित होते हुए भी अधिक पथभ्रष्ट होगया है, इसके मूल में अर्थ की पवित्रता को भूल जाना है।
एक नीतिकार का कथन है कि मूर्ख लोगों ने थोड़े से लाभ के लिये वेश्याओं के समान अपने आपको सजाकर दूसरों के अर्पण कर दिया हैः-
‘अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्त्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकारिणी कृतः।’
अब प्रश्न उठता है कि क्या हमें धन की उपेक्षा कर देनी चाहिये? कदापि नहीं, क्योंकि वेदशास्त्र हमें समृद्ध और सुखमय जीवन यापन करने का उपदेश देते हैः-‘पतयः स्याम रयीणाम्।’[7] लेकिन जिनके पास धन है, उन्हें धन का उपयोग किस प्रकार करना चाहिये, ऋग्वेद कहता हैः-
‘मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।’[8]
जो स्वार्थी व्यक्ति अकेले ही सब कुछ खाना चाहता है, मैं सत्य कहता हूँ कि यह उसकी मृत्यु है, क्योंकि इस प्रकार खाने वाला व्यक्ति न अपन भला कर सकता है और न मित्रों का। केवल अपने ही खाने-पीने का ध्यान रखने वाला व्यक्ति पाप का भक्षण करता है।
आजीविका के चलाने का ऐसा कौन-सा मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य ससम्मान जीवन यापन कर सकता है। इस विषय में नीतिकार का मत हैः-
‘अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घय़ सतां मार्गं यत् स्वल्पमपि तद्बहु।’
दूसरों को सन्ताप दिये विना, दुष्ट के आगे सिर झुकाये विना तथा सन्मार्ग का उल्लङ्घन न करते हुए जो भी प्राप्त हो जाये, वही धन स्वल्प होते हुए भी बहुत है।
यदि व्यक्ति उक्त मार्ग का अनुसरण करता है, तो उसका धन पवित्र धन है। इस प्रकार के अन्न का उपभोग करने वाला व्यक्ति, यदि साधना पथ पर बढ़ता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है।

[1] मनु0,6.92.
[2] मनु0,5.106.
[3] मनु0,5.109.
[4] छान्दो0,3.7.25.
[5] मनु0,4.85.
[6] मनु0,2.97.
[7] ऋ0,10.121.10.
[8] ऋ0,10.117.6.

Monday, February 6, 2017

अरथी का क्या अर्थ होता है ?

अरथी का क्या अर्थ होता है ?

अ+रथी = अरथी

घोड़ागाड़ी को रथ कहा जाता है और रथ पर सवार को रथी कहते हैं।
इसी से मानव शारीर की तुलना करतें है एवं उपनिषद में भी कहा है की मनुष्य-शरीर रथ के सामन है।

इस रथ का स्वामी आत्मा है अर्थात मनुष्य-शरीर रथ पर आत्मा सवार है।
बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं।
इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं।
आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा।

मनुष्य शरीर में आत्मा रथी है। जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर अरथी रह जाता है।

प्रस्तुति:- आर्य्य रूद्र

अथ सोमगुणानाह।

ओ३म्

अथ सोमगुणानाह।






ऋग्वेद २.१४ सुक्तः गुरुत्वम् ।
ऋग्वेद की इस सूक्त की विशेषता और महत्व. ।
"प्रथम मन्त्र में सोम के गुणों को चित्रित करते हैं, इस सूक्त में "अध्वर्यवो" को संबोधित किया है ।
आज के समय जो वैज्ञानिक है उनकी खोज करने का तरीका बड़ा कष्ट देना वाला है।
-वह कष्ट जो समय खूब लेता है ।
-वह कष्ट जो धन खूब लेता है ।
-वह कष्ट जो विरोध उत्पन करता हैं ।
-वह कष्ट जो असफलता देता है, ऐसे विज्ञानं का क्या फ़ायदा जो इतने भयंकर कष्ट युक्त हो ? आइये आप सभी को प्राचीन काल का विज्ञानं जो इश्वर द्वारा दिया है उसके विषय में बताते हैं ।
हमारे भारतवर्ष के प्राचीन युग से सबसे आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं वेद में ही निहित हैं ।
आज ऋग्वेद से सबसे आधुनिक वैज्ञानिक सभ्य सामाजिक अवधारणाओं से पता चलता है कि हमें किस प्रकार "अध्वर्यवो" से सोम का विस्तार करना चाहिए ।

१. सर्वोच्च प्राथमिकता - उत्तम शिक्षा व्यवस्था
समाज में ‘सोम’ के विस्तार प्रसार के लिए उच्चतम शिक्षा प्राप्त कराने हेतु गुरुकुल, उत्तम शिक्षक गण और अनुसंदान की सुविधान की सुविधाएं उपलब्ध कराओ।
अध्वर्यवो भरतेन्द्राय सोममामत्रेभि: सिञ्चता मद्यमन्ध: ।
कामी हि वीर: सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि ॥ ऋग्वेद २.१४.१
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले मनुष्यो ! तुम जो (एष: ) यह (कामी) कामना करने के स्वभाव वाला (वीर:) वीर ( वृष्णे) बल बढ़ाने के लिए (अस्य) इस सोम रस के (पीतिम्‌) पान को (वष्टि) चाहता है, (तत्‌ इत्‌) उसे (सदम्‌) पाने योग्य सोम (हि) को निश्चय से तुम (जुहोत) ग्रहण करो (इन्द्राय) और परमैश्वर्य के लिए (अमत्रेभि:) उत्तम पात्रों से (मद्यम्‌) हर्ष देने वाले (अन्ध: ) अन्न को तथा (सोमम्‌) सोम रस को (सिञ्चत) सींचो और बल को (आ, भरत) पुष्ट करो ॥१॥
-परमैश्वर्य, अन्न, सुख, साधनोंं, बल, पौरुष की कामना करने के स्वभाव की वृद्धि के लिए उत्तम शिक्षा देने और उत्तम शिक्षक गण तैयार करने की और अनुसंधान की व्यवस्था करो ।
२. द्वितीय प्राथमिकता - उत्तम जल संरक्षण नीति
अध्वर्यवो यो अपो वव्रिवांसं वृत्रं जघानाशन्येव वृक्षम् ।
तस्मा एतं भरत तद्वशायँ एष इन्द्रो अर्हति पीतिमस्य ॥ ऋग्वेद २.१४.२
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को अहिंसा की इच्छा करने वालो ! (य: ) जो सूर्य (वब्रिवांसं ) आवरणकरने वाले (वृत्रम्‌) मेघ को (अशन्येव) बिजुली के समान(वृक्षम्‌) वृक्षको (जघान) मारता है अर्थात दहशक्ति से भस्मकरदेता है और (आप: ) जलों को वर्षाता तथा जो (एष: ) यह (इन्द्र: )
ऐश्वर्यवान्‌जन (अस्य) सोमलतादि रस के (पीतिम्‌) पीने को (अर्हति) योग्य होता है इस कारण (तद्वशाय) उन उन पदार्थों को कामना करनेवाले के लिए (यतम्‌) उक्त पदार्थ द्वय को धारण करो अर्थात्‌ उन के गुणों को अपने मन में निश्चित करो ॥२॥
-वर्षा का जल सब से उत्तम जल होता है. इस के संग्रह और सदुपयोग की व्यवस्था द्वारा जैविक कृषि की उत्तम व्यवस्था करो.
३. तृतीय प्राथमिकता - पर्यावरण संरक्षण वन सम्पदा का महत्व
अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान यो गा उदाजदप हि वलं व: ।
तस्मा एतमन्तरिक्षे न वातमिन्द्रं सोमैरोर्णत जूर्ण वस्त्रै: ॥ ऋग्वेद २.१४.३
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) यज्ञ संपादन करने वाले जनों ! (य: ) जो (दृभीकम्‌) भयङ्कर प्राणी को (जघान्‌) मारता है किस को कि (य: ) जो (गा: ) गौओं को (उदाजत्‌) विविध प्रकार से फैंके अर्थात उठाय उठाय पटके और मारे और (बलम्‌) बल को (अप, व: ) अपवरण करें रोकें ( तस्मै) उस के लिए (हि) ही (एतम्‌) इस यज्ञ को (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वातम्‌) पवन के ( न) समान वा(इन्द्रम्‌) मेघों के धारण करने वाले सूर्य को (वस्त्रै: ) वस्त्रों से (जू: ) बुड्ढे के(न) समान(सोमै: ) ओषधियों वा ऐश्वर्यों से (आ, उर्णुत्‌)। आच्छादित करो अर्थात्‌ अपने यज्ञ धूम से सूर्य को ढापो.॥३॥
-हमारी पृथ्वी पर एक पुराने वस्त्र का आवरण है,( यह आवरण घने बादलों जैसा होता है. इस मे छिद्र नहीं होने चाहियें , यह नीचे दिए चित्र से स्पष्ट हो जाएगा ) इस आवरण के द्वारा ही पृथ्वी पर औषधि वनस्पति अन्न इत्यादि सम्भव हो पाए हैं । परंतु इस आवरण के छिद्रो के कारण अंतरिक्ष मे पवन और मेघों द्वारा ऐसे विनाशकारी बलशाली उत्पात होते है जो गौओं और सब नगरीय व्यवस्थाओं को बार बार उठा उठा कर पटक देते हैं इस आवरण के छिद्रों को यज्ञादि कार्यों से ढको. ( वेदो का स्पष्ट संकेत सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की ओर है, जो पर्यावरण के संरक्षण पर ध्यान न देने के कारण विश्वस्तर पर जलवायु का तपमान बढने से उत्पन्न हो रहा है।)
४. ओज़ोन आवरण के संरक्षण में वन सम्पदा और जीवन शैिली का मह्त्व
अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसं नवतिं च बाहून् ।
यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्र सोमस्य भृथे हिनोत ॥ ऋग्वेद २.१४.४
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) सब के प्रिय चरणों को करने वाले विद्वानों ! तुम (य: ) जो जन (उरुणम्‌) आच्छादन करने वाले (चख्वांसम्‌) मारने वाले के प्रति मारने वाले को ( जघान्‌) मारे और ( नव, नवितम्‌) न्यन्यानवे (बाहून्‌) बाहुओं के समान सहाय करने वालों को (च) भी मारे (य: ) जो (अर्बुदम्‌ ) दश क्रोड़ (नीचा) नीचों को (अव, बबाधे) बिलोता है (तम्‌) उस (इन्द्रम्‌) बिजुलीके समान सेनापति को (सोमस्य) ऐश्वर्य के (भृथे) धारण करने माइं (हिनोत्‌) प्रेरणा देओ॥४॥
-इस आच्छादन को क्षति पहुंचाने वाले सीमित श्रेणियों के तत्वों पर नियंत्रण करो ,तथा इस आवरण की सुरक्षा करने वाले असंख्य वनस्पतियों और व्यवस्थित जीवनशैलि की आवश्यकता को युद्ध स्तर पर एक कुशल सेनापति की तरह कार्यान्वित करो ( वनसम्पदा का संरक्षण और वृक्षारोपण का महत्व और सात्विक जीवन शैलि को अपना कर ही ऐसा होगा. ) पर्यावरण में व्यवस्था ठीक होने से वर्षा यथा समय होगी, आंधी तूफान तंग नहीं करेंगे.
५. जमाखोरों काले धन के व्यापारियों ,भ्रष्ट तत्वों को नष्ट कर के दरिद्रता दुर्भिक्ष से मुक्त समाज स्थापित करो
अध्वर्यवो य: स्वश्नं जघान य: शुष्णमशुषं यो व्यंसम् ।
य: पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.५
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले वा ) सब के प्रिय चरणों को करने वालो ! तुम (य: ) जो जन सूर्य जैसे(स्वश्णम्‌) सुन्दर मेघ को वैसे शत्रु को (जघान्‌) मारता है वा (य: ) जो (शुष्णम्‌) सूखे पदार्थ को (अशुषम्‌) गीला वा (य: ) जो (व्यंसम्‌) शत्रु को निर्भुज करता वा (य: ) जो (नमुचिम्‌) अधर्मात्मा (पिप्रुम्‌) प्रजापालक अर्थात्‌ राजाको वा (य: ) जो ( रुधिक्राम्‌) राज्य व्यवहारो को रोकने वलों को निरन्तर गिराता है (तस्मै) उस ( इन्द्राय) सूर्य के समान सेनापति के लिये (अन्धस: )अन्न (जुहोत्‌) देओ ॥५॥
-पिप्रुम(राजा) वे स्वार्थी जन जो केवल अपना ही पेट भरते हैं , और नमुचि (अधर्मात्मा) – कर न देने वाला,दुर्भिक्ष कालिक मेघ के समान प्रजा के निमित्त कुछ भी सुख न देने वाला क्षमाके अयोग्य होते हैं । उन्हें किसी भी अवस्थामें (रुधिक्रा) राज्य शासन दण्ड व्यवस्था द्वारा क्षमा नहीं करना चाहिए.
६. प्राकृतिक आपदाओं से बचाव
आपदाओं के उपरान्त युद्धस्तरीय पुनर्वास योजना
अध्वर्यवो य: शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव पूर्वी:।
यो वर्चिन: शतमिन्द्रो सहस्रमवावपद् भरता सोममस्मै ॥ ऋग्वेद २.१४.६
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे ( अध्वर्यव: ) युद्धरूप यज्ञ को सिद्ध करने वालो! तुम लोगों में से (य: ) जो (शम्बर्स्य) जिस से स्वीकार किया जाता उस मेघ के (शतम्‌) सौ (पुर: ) पुरों को जैसे घोड़ों को (अश्मनैव: ) पत्थर से वैसे (विभेद) छिन्न भिन्न करता है (य: ) जो (इन्द्र: ) ऐश्वर्यवान्‌ ( वर्चिन्: ) प्रदीप्त अपने सर्व बल से दैदीप्यमान राजा के (शतम्‌) सौ और (सहस्रम्‌) हज़ार (पूर्वी: ) पहले हुइ प्रजाओं को (अपावपत्‌) नीचा करता है (अस्मै) इस सेनेश के लिए (सोमम्‌) ऐश्वर्यको (भरत) धारण करो ॥६॥
-(सुदूर भूतकाल के समय से) जो आवरण उपयुक्त समय पर वर्षा इत्यादि की व्यवस्था प्रदान करता है उस आवरण की क्षति से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं द्वारा आए संकट एवं विनाश को तत्काल युद्धस्तर पर निदान करने की व्यवस्था स्थापित करें ।
७.सातवीं प्राथमिकता - खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता
अध्वर्यवो य: शतमा सहस्रं भूभ्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान् न्यावृणग् भरता सोममस्मै ॥ ऋग्वेद २.१४.७
महर्षि दयानंद पदार्थ- हे (अध्वर्यव: ) युद्ध-यज्ञरूप सिद्धि के करने वाले जनो ! तुम (य: ) जो सूर्य के समान (भूम्या: ) भूमि के (उपस्थे ) ऊपर ( शतम्‌) सेकड़ों वा ( सहस्रम्‌) सहस्रों वीरों को (आ, अपवत्‌) बोता अर्थात गिरा देता दुष्टों को (जघन्वान्‌ ) मारता वा (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होने वाले (आयो:) और प्राप्त हुए (कुत्सस्य) बाण आदि फैंकने वाले प्रजापति के (वीरान्‌) शत्रु बलों को व्याप्त होते वीरों को (नि,आवृणक्‌) निरंतर वर्जता है (अस्मै) इस के लिए (सोमम्‌) ऐश्वर्य को (भरत) पुष्टकरो ॥७॥
-कृषक एक योद्धा के समान उर्वरक भूमि में जो अन्नोत्पादन के लिए प्रयत्न करता है, उसे सहस्रों खर पतवार, कीटाणु इत्यादि शत्रु नष्ट करने के प्रयास करते हैं. इन से निपटने के लिए उत्तम वीर स्थापित करो.
( इस विषय को जैविक खेती में अत्यंतमहत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है.गौ माता के गोबर मूत्र इत्यादि से भूमि मे कृषि उत्पादन और जैविक खड़ पतवार कीट नियंत्रण विषय एकीकृत ( समन्वित) कीट प्रबंधन के नाम से आधुनिक कृषि विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अनुसंधान का काम है )
८.अपव्यय निषेध एवं प्रतीकार
अध्वर्यवो यन्नर: कामयाध्वे श्रुष्टी वहन्तो नशथा तदिन्द्रे ।
गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.८
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) सब का हित चाहने वाले (नर: ) नायक मनुष्यो ! तुम (यत्‌) जिस राज्य या धन को (श्रुष्टी) शीघ्र (वहन्त: ) प्राप्त करते हुए (कामयाध्वे) उस की कामना करो ( नशथ) वा छिपाओ (तत्‌) उस (गभस्तिपूतम्‌) किरणों वा बाहुओं से पवित्र करे हुए को (इन्द्रे) सभापति के निमित्त (भरत) धारण करो । हे ( यज्यव: ) सङ्ग करनेवाले जनों ! तुम (श्रुताय)जिस का प्रशंसित श्रुति विषय है उस (इन्द्राय)सभापति के लिये(सोमम्‌) ओषधियों के रस को वा ऐश्वर्य को (जुहोत्‌) ग्रहण करो ॥८॥
-सामाजिक संसाधनों एवं धन का अनावश्यक, अनुपयोगी, अनुत्तरदायी, अनुत्पादक उपयोग रोकने एवं उन्हें समाजोपयोगी पशंसा योग्य उपयोग के लिये बचाने की व्यवस्था करें । राज्य के हित में किन विषयों को गोपनीय रखना है, इस पर अधिकारी वर्ग संयम स्वनियंत्रण और मर्यादा का पालन करना चाहिए
राज्याधिकारी वर्ग को राज्य हित में गोपनीयता का पालन करना चाहिए
९. प्रदूषण नियंत्रण
अध्वर्यव: कत्तर्ना श्रुष्टिमस्मै वने निपूतं वन उन्नयध्वम् ।
जुषाणो हस्त्यमभि वावशे व इन्द्राय सोमं मदिरं जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.९
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) पुरुषार्थी जनों ! तुम (अस्मै) इस सभापति के लिये (वने) किरणों में (श्रुष्टिम्‌) शीघ्र (निपूतम्‌) निर न्तर पवित्र और दुर्गंध वा प्रमादपन से रहित पदार्थ (कर्त्तन) करो (वने) और किरणों में (उन्नयध्वम्‌) उत्कर्ष देओ जो (हस्त्यम्‌) हस्तों में उत्तम हुए पदार्थ को (जुषाण: ) प्रीति करता वा सेवन करता हुआ (मदिरम्‌) आनन्द देने वाली (सोमम्‌) सोमलतादिरस को ( अभि,वावशे) प्रत्यक्ष चाहता (तस्मै) उस सभापति के लिए और (व: ) तुम लोगोंको (इ न्द्राय) ऐश्वर्यवान जन के लिए उक्त पदार्थ को (जुहोत्‌) देओ.॥९॥
वैज्ञानिक विद्वतजन दुर्गंधित प्रदूषित जलों को सूर्य की किरणों द्वारा, लताओं इत्यादि के द्वारा दुर्गंध रहित और प्रदूषणमुक्त करें ।
१०.गो दुग्ध खाद्यान्न की पौष्टिकता
अध्वर्यव: पयसोधर्यथा गो: सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् ।
वेदाहमस्य निभृतं म एतद् दित्सन्तं भूयो यजतश्चिकेत ॥ ऋग्वेद २.१४.१०
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) बड़ी बड़ी ओषधियों को सिद्ध करने वाले जनो ! तुम (यथा) जैसे (गो: ) गौ के (पयसा) दूध से (ऊध: ) ऐन बरा होता है वैसे (सोमेभि: ) खाई हुइ सोमादि ओषधियों के साथ (ईम्‌) जलको पी के (पृणत) तृप्त होवो जैसे (भोजम्‌) भोजन करनेवाले (इ न्द्रम्‌) ऐश्वर्यवानको (अहम्‌) मैं (व्द) जानूं (अस्य) इस की (निभृतम्‌) निश्चित पुष्टिको जानूं वैसे इस विषय को (भूय:: ) बार बार जो (चिकेत) जाने उस को तृप्त करो ॥१॥
-वनस्पतियों ,ओषधियों और गो दुग्ध जल के पौष्टिक तत्वो को अनुसंधान द्वारा अधिक गुणों से परिपूर्ण करो. इन विषयों पर अनुसंधान अविरल गति से चलता रहे ।
११. पारदर्शिता से धनोपार्जन और जीवन शैली को महत्व दो
अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो य: पार्थिवस्य क्षम्यस्य राजा ।
तमूर्दरं न पृणता यवेनेन्द्रं सोमेभिस्तदपो वो अस्तु ॥ ऋग्वेद २.१४.११
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: )राजसम्बन्धी विद्वानजनों ! (य: ) जो (दिव्यस्य ) प्रकाश में उत्पन्न हुए (वस्व: ) धन को वा (य: ) जो (पार्थिवस्य) पृथिवी मे विदित (क्षम्यस्य) सहनशीलता में उत्तम उस के बीच (व: ) तुम्हारे लिए ( राजा) राजा (अस्तु) हो. (तम्‌) उस (इन्द्रम्‌ ) ऐश्वर्यवान को (यवेन्) यव अन्न से जैसे(ऊर्दरम्‌) मटका को वा डिहरा को (न) वैसे) (सोमेभि: ) सोमादि ओषधियों से पृणत) पूरो परि पूर्ण करो (तत्‌) उस (अप: ) कर्म को प्राप्त हू ॥११॥
प्रकृति से कृषि से जैविक अन्न से,ओषदि युक्त वनस्पतियों पारदर्शिता और सहनशीलता की शिक्षा का उपदेश ग्रहण करो और सब से बिना स्वार्थ के बांटो ।
१२. सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो
अस्मभ्यं तद् वसो दानाय राध: समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् ।
इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून् बृहद्वदेम विदथे सुवीरा: ॥ ऋग्वेद २.१४.१२
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे (वसो) धन देने वाले (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त ! (सुवीर:) सु न्दर वीरों वाले हम लोग जो (ते) तुम्हारा (बहु) बहुत ( चित्रम्‌) अद्‌भुत (वसव्यम्‌) पृथिवी आदि वसुओंसेसिद्ध हुए ( बृहत्‌ ) बहुत (राध: ) समृद्धि करने वाले धन को (श्रवस्या: ) अन्नों के लिए हित करने वाली पृथिवीके बीच (अनु द्यून्‌) प्रति दिन (विदथे ) विज्ञान रूपी संग्राम यज्ञ में (वदेम) कहें उस को हमारे लिए देने को आप (समर्थयस्य ) समर्थ करो ॥१२॥
सज्जनों का धन औरों के सुख के लिये और दुष्टों का धन औरों के दुःख के लिये होता है जो धन और ऐश्वर्यों की उन्नति के लिये सर्वदा प्रयत्न करते हैं वे पुष्कल वैभव पाते हैं । इस प्रकार एक अद्‌भुत सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो ।
इति चतुर्द्दशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

प्रस्तुति:- आर्य्य रूद्र.

स्वदेशी बनो विदेशी नहीं।

॥ शङ्का समाधान ॥
लोगो का रोना है कि अपने देश में निर्मित उत्पाद विदेशी उत्पादों से उत्तम नहीं होते अतः हम लोग विदेशी उत्पाद ही खरीदते हैं ।
उत्तर:- अरे भाई विदेशी उत्पाद को उत्तम किसने बनाया ? 
उनके अपने लोगो ने अपने देश में निर्मित उत्पाद खरीदते रहे और उत्पादक को समय मिलता रहा अपने उत्पाद को उत्तम से अति उत्तम बनाने का और उनके उत्पाद इतने उत्तम हो गए हैं कि आज अपने देश में तो बिक्री हो ही रही है और विदेशो में भी बिक्री होने लगी हैं।
क्या यही बात हम पर भी लागू नहीं होती ?
यह उत्तम उदाहरण है हमारे लिए, हमें भी उनके जैसा ही करना चाहिए अपने देश के स्वदेशी उत्पादों को इतना सहयोग करना चाहिए कि वे विदेशो से भी सहयोग पाने लगे।............ विचार करें ।
एक और बात...... कुछ लोग देश भक्त तो है किन्तु अंग्रेजी में देश भक्ति करतें हैं यदि आपकी देशी भक्ति अंग्रेजी भाषा में है तो आप देश भक्त कैसे हुए ? आप तो विदेश भक्त हुए न ?
जरा सोचिये क्या यह संभव है कि हमें भूख लगी हो और बस भोजन का नाम मात्र लेने से भूख मिट जाये ? यदि किसी के लिए यह संभव है तो कृपया अपने हिस्से का भोजन किसी भूखे व्यक्ति को अवश्य दान करें और अपना पेट भीं भीं प्रकार के व्यंजनों को समरण कर भर लिया करें.....।
अंग्रेजी हमें विदेशी बनाएगी और हिंदी स्वदेशी, तब जा के आप देश भक्त कहलाओगे।
स्वदेशी बनो विदेशी नहीं।
प्रस्तुति :- आर्य्य रूद्र

॥ वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना ॥

॥ वैदिक राष्ट्रीय प्रार्थना ॥

आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम आ
राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम
दोग्ध्री: धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्ति: पुरन्धियोषा जिष्णु
रथेष्ठा: । सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम ।
निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न औषधय:
पच्यन्ताम योगक्षेमो न: कल्पताम्। ॥ यजुर्वेद । २२, । मन्त्र । २२ । ॥

ब्रह्मन ! स्वराष्ट्र में हों , द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों , अरिदल-विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौवें , वृषभाश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों , नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा , यजमान -पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें , पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों , औषध अमोघ सारी ।
हो योगक्षेमकारी स्वाधीनता हमारी ॥

Thought

जब मनुष्य की आवश्यकता बदल जाती है तो उसका आपसे बात करने का तरीका बदल जाता हैं। - आर्यवीर