Sunday, August 6, 2017

विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका





॥ ओ३म् ॥

विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका

आज हम इतिहास के जिस युग में यात्रा कर रहे हैं, वह मानवता के इतिहास में अब तक का सबसे अधिक चुनौती पूर्ण और विसंगति से भरा हुआ समय है। मानव समय-समय पर अनेक प्रकार के अभावों से जूझता रहा है, विज्ञान के विकास के कारण आज जबकि हम पहले से कहीं अधिक प्रकृति की प्रतिकूलता का सामना कर सकने की स्थिति में हैं, परन्तु फिर भी सुखी हेने के स्थान में विश्व अधिक दुःखी है, अधिक अभावों से भरा हुआ है। यद्यपि नित नये उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के सम्प्रदाय सुखी होने का मन्त्र हमें देते रहते हैं, लेकिन मनुष्य की समस्यायें अन्त होने के स्थान पर सुरसा के मुख की भाँति दीर्घ दीर्घतर होती चली जा रही हैं। आज जिस रूप में धर्म को परिभाषित किया जा रहा है और उसका अनुष्ठान पहले की अपेक्षा अधिक कठोरता से किया भी जा रहा है, परन्तु मनुष्य पर इतने अधिक दबाव हैं कि वह चाहकर भी अपनी इस अशान्ति का कोई समाधान ढ़ूँढने में असफल रहा है। इसका यह तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है कि या तो धर्म शक्तिहीन हो गया है या फिर धर्म मिथ्या या फिर जिस प्रकार धर्म को समझना चाहिये और समझकर आचरण में लाना चाहिये, यह सारी प्रत्रिया दोषपूर्ण है।
आचार्य मनु धर्म का लक्षण देते हुए कहते हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमत्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।15।।[1]
विश्वशान्ति की दृष्टि से मनु के उक्त धर्म के लक्षण में सभी तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, उसमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन आज का विश्व इसमें क्षमा, अस्तेय, सत्य और अत्रोध (शान्ति) को अपने जीवन में उतार ले तब भी मानवता का शान्ति का पथ प्रशस्त हो सकता है।
महर्षि दयानन्द धर्म और अधर्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- जो पक्षपातरहित, न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञापालन, परोपकार करना रूप ‘धर्म’ जो इससे विपरीत वह ‘अधर्म’ कहाता है क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्यों कर न कहावेगा? देखो! किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है। यही पक्षपात से मिथ्या और विरुद्धाचार अधर्म और जब तीसरे ने दोनों से पूछा कि सत्य बोलना धर्म अथवा असत्य? तब दोनों ने उत्तर दिया कि सत्य बोलना धर्म और असत्य बोलना अधर्म है, इसी का नाम धर्म जानो परन्तु यहाँ पाँच परीक्षा की युक्ति से सत्य और असत्य का निश्चय करना योग्य है।[2]
महर्षि ने समस्या का साक्षात्कार करते हुए कहा है-‘किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है।’[3] समस्या का मूल कारण यह है कि हम सोचते हैं कि जो मैं मानता हूँ, वह सत्य और हितकारी और जो मेरे लिये हितकारी है, वही सबके लिये हितकारी और पथ्य है। उसको मनवाने और लागू करने के लिये हम अपनी सारी शक्ति झोंक देते हैं और दण्ड के बल पर मनवाकर ही दम लेते हैं। विश्व अशान्ति को बढ़ावा देने में अकेले इस तथ्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस समस्या के परिहार के लिये मनु ने रास्ता सुझाया है, वे धर्म की एक और परिभाषा देते हुए कहते हैं-
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।[4]
उक्त धर्म के लक्षण में यद्यपि मनु ने वेद, स्मृति और सदाचार को भी धर्म का आधार प्रतिपादित किया है। परन्तु चतुर्थ प्रकार ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’ के द्वारा धर्म के जिस रूप का प्रतिपादन किया है, उसका मापदण्ड बड़े-बड़े शास्त्र नहीं हैं, दूसरों के द्वारा आचरण में लाया गया आदर्श हेने के कारण प्रायः अग्राह्य रह जाने वाला आचरण नहीं है। धर्म के इस लक्षण में केवल इतना कहा गया है कि जो अपनी आत्मा को प्रिय है, वही व्यवहार हम दूसरों के साथ करें। धर्म की इससे सरल और ग्राह्य परिभाषा नहीं की जा सकती। कोई भी जीव यह नहीं चाहता कि हमें जबर्दस्ती किसी भी मार्ग पर चलने के लिये बाध्य किया जाए। यदि हमें किसी कर्म को करने के लिये बाध्य किया जाता है, तो हम भले ही प्रतीकार न कर पायें, पर मन ही मन दुःखी होते हैं। सभ्य मनुष्यों की भाषा में इसीका नाम गुलामी है। हम किसीके अपराध को ही क्षमा न करें, हम उसके अस्तित्व को भी स्वीकार करें और यह मानें जितना इस विश्व में मेरा अधिकार है, उतना ही दूसरे का है। यही न्याय और पक्षपातरहित स्वीकृति धर्म है और इसका मूल है-क्षमा।
जहाँ भारतीय धर्म इतना अधिक सहनशील है कि वह दूसरे के अस्तित्व के साथ-साथ उसके अधिकार को भी स्वीकृति प्रदान करता है, वहीं इस्लाम इतना अधिक असहनशील है कि वह अपने और अपने स्वार्थ के अलावा किसी को मानने को तैयार नहीं है। कुरान में लिखा है-‘अल्लाह के मार्ग में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं। मार डालो तुम उनको जहाँ पाओ, कतल से कुप्र बुरा है। यहाँ तक कि उनसे लड़ो कि कुप्र न रहे और होवें दीन अल्लाह का।। उन्होंने जियादती करी तुम पर उतनी ही तुम उन के साथ करो।।’[5]
महर्षि दयानन्द कुरान के उक्त वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में कहते हैं-‘जो कुरान में ऐसी बातें न होती तो मुसलमान लोग इतना बड़ा अपराध जो कि अन्य मत वालों पर किया है न करते, और विना अपराधियों को मारना उन पर बड़ा पाप है। जो मुसलमान के मत का ग्रहण न करना है उसको कुप्र कहते हैं अर्थात् कुप्र से कतल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। अर्थात् जो हमारे दीन को न मानेगा उसको हम कतल करेंगे सो करते ही आये, मजहब पर लड़ते-लड़ते आप ही राज्य आदि से नष्ट हो गये और उनका मत अन्य मतवालों पर अतिकठोर रहता है। क्या चोरी का बदला चोरी है? कि जितना अपराध हमारा चोर आदि करें क्या हम भी चोरी करें? यह सर्वथा अन्याय की बात है। क्या कोई अज्ञानी हमको गालियाँ दे क्या हम भी उसको गाली देवें? यह बात न ईश्वर की और न ईश्वर के भक्त विद्वान् की और न ईश्वरोक्त पुस्तक की हो सकती है। यह तो केवल स्वार्थी ज्ञानरहित मनुष्य की है।।36।।’[6]
आज जो विश्व में अशान्ति है, उसका मुख्य कारण यही है कि जो हमारी बात नहीं मानेगा, उसको हम जीने नहीं देंगे। इसी दुप्रवृत्ति का कुफल आज का आतंकवाद है। कुरान में एक अन्य स्थान पर कहा है-‘बस मत कहा मान काफिरों का, और झगड़ा कर उनके साथ झगड़ा बड़ा।। और बदल डालता है अल्लाह बुराइयों उनकी को भलाइयों से।।’[7] जो खुदा, पैगम्बर और कुरान को नहीं मानते वे काफिर हैं। इन तीनों को न मानने वाले हरेक व्यक्ति से झगड़ा करने की प्रेरणा कुरान दे रही है। और वह स्पष्ट रूप से काफिरों गर्दनों पर मारने का निर्देश देती हुई कहती है-‘बस जब तुम मिलो उन लोगों से कि काफिर हुए बस मारो गर्दनें उनकी यहाँ तक कि जब चूर कर दो उनको बस दृढ़ को कैद करना।। और बहुत बस्तियाँ हैं कि वे बहुत कठिन थीं शक्ति में बस्ती तेरी से, जिसने निकाल दिया तुझ को मारा हमने उसको, बस न कोई हुआ सहाय देने वाला उनकी।। तारीफ उस बहिश्त की कि प्रतिज्ञा किये गये हैं परहेजगार, बीच उसके नहरें हैं बिन बिगड़े पानी की, और नहरें हैं दूध की कि नहीं बदला मजा उनका, और नहरें हैं शराब की मजा देने वाली वास्ते पीने वालों के, और नहरें हैं शहद साफ किये गये की, और वास्ते उनके बीच उसके मेवे हैं प्रत्येक प्रकार से दान मालिक उनके से।।’[8] ‘और काटें जड़ काफिरों की।। मैं तुम को सहाय दूँगा साथ सहस्र फरिश्तों के पीछे-पीछे आने वाले।। अवश्य मैं काफिरों के दिलों में भय डालूँगा, बस मारो ऊपर गर्दनों के मारो उनमें से प्रत्येक पोरी (संधि) पर।।’[9]
आज इस्लाम विश्व का सबसे बड़ा सम्प्रदाय है, उसके सबसे अधिक अनुयायी हैं। जब लगभग विश्व की 40 प्रतिशत आबादी आतंक की शिक्षा घुट्टी में प्राप्त कर रही है, उनको यह सिखाया जा रहा है कि काफिरों को मारने से बहिश्त मिलता है, तभी 11 सितम्बर वाली घटनायें घटित होती हैं। इसलिये मनु की क्षमाशीलता विश्वशान्ति की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। यदि मानव क्षमाशील हो जाए, जैसा वह अपने लिये चाहता है, वही दूसरों के साथ व्यवहार करे तो विश्वशान्ति काफी कुछ सुरक्षित हो सकती है।
मनु के धर्म के लक्षण में विश्वशान्ति की दृष्टि से दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु ‘अस्तेय’ है। स्तेय का अर्थ चोरी करना है, जबकि अस्तेय चोरी न करने का नाम है।

[1]. मनु06.92.
[2]. व्यव0भा0
[3]. व्यव0भा0
[4]. मनु02.12.
[5]. मं01, सि02, सू02, आ0190-191, 193-194.
[6]. स0प्र0चतु0समु0
[7]. मं04, सि019, सू025, आ025, 52, 70, 71.
[8]. मं06, सि026, सू047, आ04, 13, 15.
[9]. मं02, सि09, सू08, आ07, 9, 12.

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