Saturday, September 23, 2017

श्राद्ध - तर्पण विचार

॥ओ३म्॥
श्राद्ध - तर्पण विचार
पञ्च महायज्ञ में द्वतीय तर्पण नामक पितृयज्ञ है । उसी का अवान्तर भेद श्राद्ध है । पितृयज्ञ के भेदों में तर्पण सामान्य कर भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःखों की निवृत्तिरूप तृप्ति वा प्रसन्नता , मन में पूरा सन्तोष वा आनन्दरूप माना जाता है । और श्राद्ध नाम कर्मविशेष का है कि जिस कर्म के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःखों से निवृत्त होते हैं । श्रद्धा से जिस कारण दिया जाता है, इसलिये इस पितृसम्बन्धि दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं । अथवा श्रद्धा पूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम भी श्राद्ध हो सकता है । इसी अर्थ से श्राद्धभोजी शब्द सार्थक बन जाता है कि श्राद्ध-नाम श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला । तथा इसी विचार के अनुसार पाणिनीय सूत्र "श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ" घट जाता है कि जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो , वह श्राद्धि वा श्राद्धिक कहावेगा । यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है । इसी प्रमाण से श्राद्ध शब्द भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम है , यह निश्चित होता है - यही सत्य सिद्धान्त है ।।
श्राद्ध में पितर कौन ?
अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस पर सङ्क्षेप में विचार करते हैं । नीति में लिखा है कि - 'उत्पादक , यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता , अन्न्दाता और भय से बचाने वाला , ये पञ्च पिता या पितर माने गये हैं (जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ....... ।।) इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पाद पिता या पितर में रूढ़ि भी है । सामान्य जन पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते । परंतु विशेष व्यवहार में नीति से प्रकरणानुसार अर्थ ग्रहण होते हैं । परन्तु श्राद्धकर्म में विशेषकर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है , और अपने पिता (उत्पादक) की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए - अन्यथा वह कृतघ्न है । और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये , वही श्राद्ध है ।।
श्राद्ध और ऋतु विचार
शरद्धेमन्तः शिशिरस्ते पितरः ।। शतपथ ।। से शरद को पितरों की ऋतु कहा है अतः इसी में श्राद्ध अभीष्ट है - अब इस विचार के समाधान में बल लगाया जाता है - श्राद्ध कर्म विधि वाक्यों द्वारा स्मृति में उत्सर्गरूप से प्राप्त है परंतु अपवाद रूप से नैमित्तिक श्राद्ध भी कहा गया है - जो प्रतिदिन श्राद्ध में समर्थ नहीं है या जिसे पितर नित्य - नित्य प्राप्त नहीं उसके लिये नैमित्तिक श्राद्ध अपवाद रूप से प्राप्त है - उतसर्ग से अपवाद का क्षेत्र अल्प है अतः नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत था - ऐसा पाणिनीय सूत्र "श्राद्धे शरदः" से प्रतीत होता है । इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् होता है । अतः शरद् में होने वाले श्राद्ध को ही शारदिक कहेंगे यद्यपि अन्य कार्य शारद कहायेंगे । परन्तु इस सूत्र से यह तात्पर्य कभी नहीं है कि शरद् में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाये वा अन्य ऋतु में श्राद्ध होता ही नहीं - किन्तु सूत्र का अभिप्राय मात्र इतना ही है अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न होकर अण् ही हो ।।
।। ओ३म् ।।

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