Sunday, August 6, 2017

आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन


॥ ओ३म् ॥

आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन


प्रत्येक चिन्तनशील मनुष्य यह जानता है कि शरीर धारण करने वाला जीव सदा-सर्वदा के लिये इस धरा पर नहीं आया है। अनन्त यात्रा के एक पड़ाव के रूप में वह यहाँ कुछ समय के लिये ही रुक सकता है। जिसे यात्रा पर आगे जाना है, वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकता। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने अग्रिम यात्रा को यात्रा न रहने देने के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों को जीवन के लिये अपरिहार्य माना है। पुरुषार्थ शब्द से अभिप्राय हैः-पुरुष का प्रयोजन अर्थात् मानव जीवन का लक्ष्य।
साधारण मनुष्य अपने जीवन का प्रयोजन अर्थ और काम समझता है। यदि इस आधार पर मनुष्य और पशु का विश्लेषण करना चाहें तो ज्ञात होता है कि मनुष्य अर्थ और काम में से अर्थ को प्रधानता देता है, जबकि पशु काम को। जहाँ मनुष्य जड धन की उपासना में लगा रहता है, वहाँ पशु जडत्व से सर्वथा भिन्न शरीर की आवश्यकताओं तक सीमित रहता है। लेकिन मात्र काम अर्थात् विषय-वासनाओं की दृष्टि से भी यदि दोनों का मूल्याङ्कन करें तो मनुष्य ने इस दृष्टि से भी पशुओं को पीछे छोड़ दिया है।
भोगों को प्राप्त करने के लिये अर्थ की आवश्यकता होती है और उसे प्राप्त करने में मनुष्य धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, उचित-अनुचित का विचार नहीं करता है और यहीं से उसके पतन का प्रारम्भ हो जाता है। विना उचित रीति से अर्जित किया हुआ धन अर्थ न रहकर अनर्थ बन जाता है।
मनुस्मृति ने धर्म के निम्न दस लक्षण बताये हैः-
1. धृति, 2. क्षमा, 3. दम, 4. अस्तेय, 5. शौच, 6. इन्द्रिय-निग्रह, 7. धी, 8. विद्या, 9. सत्य, 10. अत्रोध।[1] इनमें से पाँचवाँ स्थान शौच अर्थात् अन्तः और बाह्य शुद्धि का है। शुद्धि का उपाय बताते हुए मनु कहते हैः-
‘सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।’[2]
सब प्रकार की शुचियों में अर्थ की शुद्धता सबसे बढ़कर है। जो अर्थ की दृष्टि से शुद्ध है, वही शुद्ध है, लेकिन जिसने अपने को मिट्टी, जल आदि साधनों से शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है।
यहाँ यह विचार करने का विषय है कि जिसने मिट्टी, जल, साबुन आदि से मलों को निर्मूल करने वाले साधनें से अपने को शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है, वरन् जिसने न्यायपूर्वक धन को अर्जित किया है, वह शुद्ध है, ऐसा क्यों? अपने आशय को स्पष्ट करते हुए तथा मन में उठने वाली उक्त शङ्का का समाधान करते हुए मनु कहते हैः-
‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।’[3]
शरीर की शुद्धि जल से होती है, मन की शुद्धि सत्य का आचरण करने से, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है, जबकि ज्ञान से बुद्धि निर्मल होती है। उक्त वक्तव्य से मनु ने स्पष्ट कर दिया है कि शरीर की शुद्धि का एकमात्र साधन जल है, जबकि अन्तःकरणसहित आत्मशुद्धि के साधन चार हैः-1. सत्य, 2. ज्ञान, 3. तप और 4. ब्रह्मविद्या। जो व्यक्ति सत्य और ज्ञान पर चल पड़ता है, वह अनीतिपूर्वक धन का अर्जन नहीं कर सकता या यह कह सकते हैं कि जिसे अपनी आत्मा को शुद्ध करना है, वह सत्य और ज्ञान की उपेक्षा नहीं कर सकता और सत्य एवं ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला अनीति का आश्रय कैसे ले सकता है?
छान्दोग्योपनिषद् कहती हैः-
‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिप्रतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्र्रमोचनम्।’[4]
भोजन की शुद्धि से बुद्धि निर्मल होती है। बुद्धि की निर्मलता से स्मृति निश्चल होती है और स्मृति की निश्चलता से सब ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं।
लोक में कहावत प्रचलित है कि ‘जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन’ इसीलिये सम्भवतः, प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, तपस्वी जन प्रत्येक के घर का भोजन स्वीकार नहीं करते थे। गुरु नानक देव के जीवन में एक ऐसा प्रसङ्ग आता है कि उन्होंने एक नितान्त निर्धन बढ़ई के घर में रूखी-सूखी रोटी खाना स्वीकार किया, परन्तु उस क्षेत्र के क्षेत्रपति के समृद्ध भोजन को खाने से मना कर दिया और उसके दुराग्रह करने पर बढ़ई लालो के घर की रोटी एक हाथ में तथा दूसरे हाथ में उसके घर की पूड़ी लेकर और निचोड़कर दिखा दिया कि बढ़ई का धन परिश्रम और ईमानदारी से अर्जित है, इसलिये उसमें से अमृत टपक रहा है, जबकि क्षेत्रपति का धन अन्यायपूर्वक, निर्धनों का शोषण करके अर्जित किया गया है, अतः, उसमें से रक्त प्रवाहित हो रहा है। इसलिये जब तक यह ज्ञात न हो जाये कि धन किस प्रकार अर्जित किया गया है, तब तक उस घर का अन्न, जल ग्रहण नहीं करना चाहिये।
इसी प्रकार का एक प्रसङ्ग काशी का है। पं0 गदाधर शास्त्री गङ्गा के तट पर स्थित एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे और उस पाठशाला से लगी भूमि पर खेती करके अपना और अपने परिवार का निर्वाह किया करते थे। कुछ समय पश्चात् पण्डित जी के घर पुत्र का जन्म हुआ। इस उपलक्ष्य में हिजड़ों ने आकर गाना बजाना किया, इस पर घर में लेटी हुई प्रसूता ब्राह्मणी ने उनसे कहा कि इस समय घर में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मैं तुम्हें उपहारस्वरूप दे सकूँ। इस पर वे बोले ब्राह्मणी कोई बात नहीं, यह बालक दीर्घायु हो, हम फिर कभी आकर अपना उपहार ले  जायेंगे। इस समय ब्राह्मणी ने अपने मन ही मन सङ्कल्प किया कि जब यह बालक युवा होकर प्रथम धन अर्जित करके लायेगा तो मैं उसे इन्हें दे दूँगी।
पण्डित जी का बालक कुछ काल में विद्वान् होगया। पण्डित जी किसी सेठ, साहूकार या राजा के घर जाते नहीं थे। राजा ने विद्वानों की सभा बुलायी, पण्डित जी का कोई शुभ-चिन्तक उस बालक को अपने साथ राजा की सभा में ले गया। जब सभा में पण्डितों को दक्षिणा दी जा रही थी, तो राजा ने पूछा कि यह बालक किसका है? एक सभासद् ने बताया कि यह पं0 गदाधर शास्त्री का सुपुत्र है। राजा ने उस बालक को पाँच सौ रूपये की थैली भेंट की। बालक ने वह लाकर खुशी-खुशी अपनी माँ को सौंप दी। जिस माता ने कभी दस रूपये न देखे हों, अचानक पाँच सौ रूपये पाकर मन में लोभ आगया। उसे हिजड़ों के लिये किया गया अपना सङ्कल्प स्मरण था, लोभ के कारण उसने उसके दो भाग कर दिये और ढाई सौ अपने पास रख लिये। आज पण्डित जी के लिये अनेक प्रकार के व्यञ्जन बनाये गये थे, पण्डित जी भोजन करके गङ्गा किनारे छात्रों को पढ़ाने चले गये और पढ़ाने के पश्चात् भगवान् के ध्यान में बैठे, परन्तु आज उनका मन ही नहीं लग रहा था।
पण्डित जी उठ खड़े हुए और घर आकर पत्नी से पूछा कि आज भोजन कहाँ से आया था? पत्नी ने बताया कि आज आपका बेटा राजदरबार गया था, वहाँ राजा ने पाँच सौ रूपये भेंट में दिये, लेकिन इसके जन्म के समय, जब हिजड़े नाचने-गाने आये थे, मैंने सङ्कल्प किया था कि युवा होने पर इसकी प्रथम कमाई को इन हिजड़ों को दे दूँगी, पर अधिक धन होने के कारण मैंने उसे आधा दे दिया और आधे रूपयों से भोजन की व्यवस्था की है। इस पर पण्डित जी बोले, प्रथम तो यह राजा का धन था, फिर यह हिजड़ों को हो गया, फिर भला मेरा मन कैसे एकाग्र हो सकता है। पण्डित जी ने बचा हुआ सारा धन बुलाकर हिजड़ों को दे दिया और स्वयं मन की शुद्धि के लिये उपवास प्रारम्भ कर दिया।
किस-किसका धन अग्राह्य है, इसका एक मापदण्ड प्रस्तुत करते हुए महाराज मनु कहते हैः-
‘दशसूनासमं चत्रं दशचत्रसमो ध्वनः।
दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो नृपः।’[5]
जो चत्र के द्वारा जीविका अर्जित करते हैं, जैसे-कुम्हार, गाड़ी, परिवहन से सम्बन्धित व्यवसाय करने वाले। इन लोगों के कार्य में जीव हिंसा अधिक होती है और प्राणियों का पालन और रक्षण कम होता है, उनके अन्न खाने वाले के मन पर दशहत्या करने के बराबर दूषित प्रभाव पड़ता है। जो मदिरा निकालकर बेचने वाले हैं, उन पर चत्र वाले अन्न की अपेक्षा दस गुना दुप्रभाव पड़ता है। जो लोग बाहर के दिखावे, वेशभूषा, आडम्बर और ढोंग से जीविका का उपार्जन करते हैं, उनका अन्न पहले से दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। मर्यादा का पालन न करने वाले राजा का अन्न वेशभूषा और बाह्य आडम्बर से आजीविका का उपार्जन करने वाले की अपेक्षा दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। सम्भवतः, इसीकारण मर्यादा का अतित्रमण करने वाले राजनेता राजनीति में प्रवेश करने के साथ ही भ्रष्ट और चरित्रहीन हो जाते हैं और आराध्य मानकर उनके आगे पीछे चक्कर लगाने वाली जनता भी उक्त दोषों से बच नहीं पाती है।
एक अन्य स्थल पर मनु कहते हैं कि वेद का स्वाध्याय और उपदेश, दान, यज्ञ, यम, नियमों का आचरण और तप का अनुष्ठान- ये सभी उत्तम आचरण, जिसकी भावना शुद्ध नहीं है, उसे कोई लाभ नहीं पहुँचा सकतेः-
‘वेदास्त्यागाश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।’[6]
महाभारत में युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए भीष्म पितामह कहते हैः-
‘अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कर्हिचित्।
इति सत्यं महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।’
हे युधिष्ठिर! मनुष्य अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। इसी अर्थ के कारण मैं कौरवपक्ष से बँधा हुआ हूँ। यहाँ भीष्म नीति और अनीति को जानते हुए भी सत्य का, जो युगधर्म भी है, साथ देने से कतरा रहे हैं। इसका कारण जो मनु ने बताया है, वही है कि राजा का अन्न अन्य किसी धन की अपेक्षा हजार गुना अधिक मन को दूषित कर देता है। आज का मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षित होते हुए भी अधिक पथभ्रष्ट होगया है, इसके मूल में अर्थ की पवित्रता को भूल जाना है।
एक नीतिकार का कथन है कि मूर्ख लोगों ने थोड़े से लाभ के लिये वेश्याओं के समान अपने आपको सजाकर दूसरों के अर्पण कर दिया हैः-
‘अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्त्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकारिणी कृतः।’
अब प्रश्न उठता है कि क्या हमें धन की उपेक्षा कर देनी चाहिये? कदापि नहीं, क्योंकि वेदशास्त्र हमें समृद्ध और सुखमय जीवन यापन करने का उपदेश देते हैः-‘पतयः स्याम रयीणाम्।’[7] लेकिन जिनके पास धन है, उन्हें धन का उपयोग किस प्रकार करना चाहिये, ऋग्वेद कहता हैः-
‘मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।’[8]
जो स्वार्थी व्यक्ति अकेले ही सब कुछ खाना चाहता है, मैं सत्य कहता हूँ कि यह उसकी मृत्यु है, क्योंकि इस प्रकार खाने वाला व्यक्ति न अपन भला कर सकता है और न मित्रों का। केवल अपने ही खाने-पीने का ध्यान रखने वाला व्यक्ति पाप का भक्षण करता है।
आजीविका के चलाने का ऐसा कौन-सा मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य ससम्मान जीवन यापन कर सकता है। इस विषय में नीतिकार का मत हैः-
‘अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घय़ सतां मार्गं यत् स्वल्पमपि तद्बहु।’
दूसरों को सन्ताप दिये विना, दुष्ट के आगे सिर झुकाये विना तथा सन्मार्ग का उल्लङ्घन न करते हुए जो भी प्राप्त हो जाये, वही धन स्वल्प होते हुए भी बहुत है।
यदि व्यक्ति उक्त मार्ग का अनुसरण करता है, तो उसका धन पवित्र धन है। इस प्रकार के अन्न का उपभोग करने वाला व्यक्ति, यदि साधना पथ पर बढ़ता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है।

[1] मनु0,6.92.
[2] मनु0,5.106.
[3] मनु0,5.109.
[4] छान्दो0,3.7.25.
[5] मनु0,4.85.
[6] मनु0,2.97.
[7] ऋ0,10.121.10.
[8] ऋ0,10.117.6.

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