Monday, December 17, 2018

क्षण व कण की जीवन में महिमा।

क्षण व कण की जीवन में महिमा। क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥ एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?



Sunday, September 2, 2018

योगेश्वर श्री कृष्ण

योगेश्वर श्री कृष्ण

श्री कृष्ण जी महात्मा, धर्मात्मा, धर्मरक्षक, दुष्टनाशक, परोपकारी, सदाचारी श्रेष्ठ पुरूष थे। आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कौरव पाण्डव के समय में वे हुए थे। उस समय में महर्षि वेद व्यास रचित ‘ग्रन्थ ‘महाभारत’ में श्री कृष्ण जी का बड़ा ही पवित्र जीवन चरित्र मिलता है। बहुत बाद में किसी धूर्त, स्वार्थी, व्याभिचारी व्यक्ति ने ‘‘भागवत पुराण’ नाम से पुस्तक लिख दी, जिसमें उसने श्री कृष्ण जी के जीवन के साथ बहुत सी गलत बातें जोड़ दीं- सम्भवतः उसने अपने दोषों को ढांपने के लिए ऐसा किया। महर्षि दयानन्द के शब्दों में ‘‘सत्यार्थप्रकाश’ से- ‘देखो! श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरूषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा और इस भागवत वाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाए हैं। दूध, दही, मक्खन आदि की चोरी और कुब्जा दासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल, क्रीड़ा आदि मिथ्या दोष श्री कृष्ण जी में लगाए हैं। इसको पढ़ पढ़ा, सुन सुना के अन्य मतवाले श्री कृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्री कृष्ण जी के सदृष महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होतीं।’ महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण जी की एक पत्नी थी-रूक्मिणी। वे बहुत उच्च कोटि के संयमी थे। उत्तम सन्तान की इच्छा से विवाह के पश्चात् वे तथा उनकी पत्नी रूक्मिणी बारह वर्ष तक ब्रह्मचारी रहे थे। उसके पश्चात् उन्हें जो पुत्र प्राप्त हुआ-प्रद्युम्न वह तेज और बल में श्री कृष्ण जी के समान था। श्री कृष्ण जी ने प्रजा हित में दुष्ट, अन्यायकारी, स्वेच्छाचारी राजा कंस का वध कर उसके धर्मात्मा, प्रजापालक पिता उग्रसेन को मथुरा का शासक बनाया। जरासंध, जिसने एक सौ के करीब धर्मात्मा, सदाचारी, परोपकारी राजाओं को बन्दी बना रखा था, को पाण्डवों की सहायता से समाप्त कर उन राजाओं को मुक्त करवाया। श्री कृष्ण जी की नीतिमत्ता तथा सूझबूझ से ही कम शक्ति के होते हुए भी पाण्डवों को कौरवों पर विजय प्राप्त हुई थी। पाण्डव जुए में हारकर वन को चले गए थे। जब श्री कृष्ण जी को पता लगा और तब वे उन्हें वन में मिलने गए। उन्होंने कहा- ‘मैं द्वारिका में न था, यदि होता तो हस्तिनापुर अवश्य आता और जुआ कभी न होने देता । धृतराष्ट्र और दुर्योधन को अनेक दोष दिखा कर जुए से रोकता।’ प्रजा में सर्वप्रिय हो जाने पर युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने का विचार किया। उन्होंने अपने भाईयों से तथा व्यास आदि महात्माओं व सम्बन्धियों से सलाह मांगी। सभी ने सहमति प्रकट की। परन्तु युधिष्ठिर को तसल्ली न हुई उन्हें श्री कृष्ण जी पर ही भरोसा था। उन्हें ही वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। उन्होंने श्री कृष्ण जी को बुलवाकर कहा- ‘मेरे भाईयों और मित्रों ने राजसूय यज्ञ करने की सम्मति दी है, परन्तु मैंने आपसे पूछे बिना उसका निश्चय नहीं किया है। हे कृष्ण! कोई तो मित्रता के कारण मेरे दोष नहीं बताता, कोई स्वार्थवश मीठी मीठी बातें कहता है और कोई अपनी स्वार्थ सिद्धि को ही प्रिय समझता है। हे महात्मन्! इस पृथिवी पर ऐसे मनुष्य ही अधिक है। उनकी सम्मति लेकर कुछ काम नहीं किया जा सकता। आप उक्त दोषों से रहित हैं । इसलिए आप मुझे ठीक ठीक सलाह दें।’यह थी भगवान् श्री कृष्ण की महत्ता। भगवान् कृष्ण ने उत्तर दिया- ‘महान् पराक्रमी राजा जरासंघ के जीते रहते आपका राजसूय यज्ञ सफल नहीं हो सकता।’ राजसूय यज्ञ आरम्भ होने पर भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा कि उपस्थित राजाओं में से जो सबसे श्रेष्ठ हो उसे ही पहले अर्घ्य दिया जाना चाहिए। युधिष्ठिर ने भीष्म से ही पूछा कि ऐसा व्यक्ति कौन है जो पहले अर्घ्य पाने का पात्र है। इस पर भीष्म ने कहा- ‘जैसे सब ज्योतिमालाओं में सूर्य सबसे अधिक प्रकाशमान है वैसे ही इन सब राजाओं में श्री कृष्ण ही तेज, बल, पराक्रम में अति प्रकाशित दीख पड़ते हैं । अतः वे ही अर्घ्य के उपयुक्त पात्र हैं।’भीष्म की सम्मति के अनुसार युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर सहदेव ने श्री कृष्ण जी को अर्घ्य प्रदान किया। शिशुपाल से श्री कृष्ण जी का यह सम्मान सहन न हुआ। उसने इस कार्य को अनुचित बताते हुए भीष्म, युधिष्ठिर और श्री कृष्ण के विरोध में बहुत कुछ कहा। तब भीष्म पितामह ने उसे शान्त करने के लिए श्री कृष्ण जी के अधिकारी होने के कारण उनके गुणों का वर्णन इस प्रकार किया- ‘यहां मैं किसी ऐसे राजा को नहीं देखता जिसे कृष्ण ने अपने अतुल तेज से न जीता हो। वेद-वेदांग का ज्ञान और बल पृथिवी के तल पर इनके समान किसी और में नहीं। इनका दान, कौशल, शिक्षा, ज्ञान, शक्ति, शालीनता, नम्रता, धैर्य और सन्तोष अतुलनीय है।….अतः ये अर्घ्य के पात्र हैं।’ श्री कृष्ण जी सदा सत्य और न्याय पर चलने वाले थे। वे रूढ़ियों और गलत बातों को स्वीकार न करते थे। वे क्रान्ति के अग्रदूत थे। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने आत्मा की अमरता का, निष्काम कर्म करने का तथा कर्तव्य अकर्तव्य का उपदेश दिया जो गीता के रूप में हमारे सामने है। जैसे महाभारत में बहुत मिलावट हो गई है ऐसे ही गीता में भी है जिससे सावधान रहने की जरूरत है। गीता महाभारत का ही एक भाग है। -कृष्ण चन्द्र गर्ग

Wednesday, August 22, 2018

कविता


इण्डिया ले गया आजादी को, बंदी अभी तक भारत है , 
बिगड़ चुकी है भाषा, भूषा, चरित्र हुआ यहाँ गारत है !
श्रम को तो सम्मान नही, माँड़लिगं पर ईनाम मिले ,
इतिहासकारो ने गुल खिलाये, देशभक्त गुमनाम मिले !
धुल भरा हीरा है भारत, इण्डिया रहे आसमानों में ,...
भारत के तन पर फटे चीथड़े, इण्डिया विदेशी परिधानों में 
देह प्रदर्शन करती नारी, ऋषि संस्कृति का कर उपहास 
काम शिक्षा की वकालत कर शिक्षा का किया सत्यानाश !
चील और कव्वे का भोजन खाने लगे इण्डिया के लोग 
धर्म मोछ सब छूट गये सबको लगा पैसे का रोग !
भारत लड़ता आतंकवाद से, इण्डिया करता समझोते ,
यदि समय पर जाग जाते तो, पाक के मालिक हम होते !
वह देश धरा से मिट जाता है, भूले जो अपने बलिदान ,
निज सस्कृति भाषा-भूषा का, जिसको नही तनिक अभिमान !
इसिलिय कहता हूँ सुन लो , ओं इण्डिया के मतवालों ,
भारत को भारत रहने दो, घर में विषधर मत पालो !
युगों - युगों से चलती आई , धारा कभी न सूखेगी ,
ऋषि संस्कृति के हत्यारों ! फिर पीढ़ी तुम पर थुकेगी !! :- Ami Arya

Thursday, April 26, 2018

सन्यासी की पहचान ॥


एक सन्यासी की पहचान॥

जगह जगह सच्चे सन्यासी की खोज में एक बार स्वामी दयानंद सरस्वती जी की एक महन्त से भेंट हुई, महन्त स्वामी जी के तेज को देखकर उन पर लट्टू हो गया, उसने 
कहा, "यदि आप हमारे शिष्य हो जाइए तो हम आप को अपनी गद्दी का मालिक बना देंगे, आपको हाथ में लाखो रुपये की जायदाद हो 
जायेगी, आप महन्त कहलाइयेगा, सैंकड़ो आदमी आपकी सेवा में हाजिर रहेंगे, और जन्मभर आप आनंद से जीवन बिताएंगे. "

इस पर स्वामी जी ने हंसकर उत्तर दिया,

भाई मेरे पिताजी की जायदाद आपकी जायदाद से कई गुना बड़ी है, जब मैं उसे लात मार कर चला आया हूँ तो आपकी जायदाद को मैं 
क्या समझता हूँ। आप न स्वयं ठीक रास्ते पर चलते है और न दुसरों को चलने देते है। चेला बनना तो दूर रहा मैं एक दिन भी आपके साथ 
नहीं रह सकता. -केदारनाथ गुप्त।

इस लेख में कई बाते छुपी है, पढ़कर अच्छा लगा।

Sunday, April 22, 2018

ईश्वर के अस्तित्व की वैज्ञानिकता॥ - आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

#ईश्वर_के_अस्तित्व_की_वैज्ञानिकता - 1

हम ईश्वर तत्व पर निष्पक्ष वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हैं। हम संसार के समस्त ईश्वरवादियों से पूछना चाहते हैं कि क्या ईश्वर नाम का कोई पदार्थ इस सृष्टि में विद्यमान है, भी वा नही? जैसे कोई अज्ञानी व्यक्ति भी सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, तारे, आकाशगंगाओं, वनस्पति एवं प्राणियों के अस्तित्व पर कोई शंका नहीं करेगा, क्या वैसे ही इन सब वास्तविक पदार्थों के मूल निर्माता व संचालक ईश्वर तत्व पर सभी ईश्वरवादी शंका वा संदेह से रहित हैं? क्या संसार के विभिन्न पदार्थों का अस्तित्व व स्वरूप किसी की आस्था व विश्वास पर निर्भर करता है? यदि नहीं तब इन पदार्थों का निर्माता माने जाने वाला ईश्वर क्यों किसी की आस्था व विश्वास के आश्रय पर निर्भर है? हमारी आस्था न होने से क्या ईश्वर नहीं रहेगा? हमारी आस्था से संसार का कोई छोटे से छोटा पदार्थ भी न तो बन सकता है और न आस्था के समाप्त होने से किसी पदार्थ की सत्ता नष्ट हो सकती है, तब हमारी आस्थाओं से ईश्वर क्योंकर बन सकता है और क्यों हमारी आस्था समाप्त होने से ईश्वर मिट सकता है ? क्या हमारी आस्था से सृष्टि के किसी भी पदार्थ का स्वरूप बदल सकता है? यदि नहीं, तो क्यों हम अपनी-२ आस्थाओं के कारण ईश्वर के रूप बदलने की बात कहते हैं? संसार की सभी भौतिक क्रियाओं के विषय में कहीं किसी का विरोध नहीं, कहीं आस्था, विश्वास की बैसाखी की आवश्यकता नहीं, तब क्यों ईश्वर को ऐसा दुर्बल व असहाय बना दिया, जो हमारी आस्थाओं में बंटा हुआ मानव और मानव के मध्य विरोध, हिंसा व द्वेष को बढ़ावा दे रहा है। हम सूर्य को एक मान सकते हैं, पृथिवी आदि लोकों, अपने-२ शरीरों को एक समान मानकर आधुनिक भौतिक विद्याओं को मिलजुल कर पढ़ व पढ़ा सकते हैं, तब क्यों हम ईश्वर और उसके नियमों को एक समान मानकर परस्पर मिलजुल कर नहीं रह सकते? हम ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि एवं उसके नियमों पर बिना किसी पूर्वाग्रह के संवाद व तर्क-वितर्क प्रेमपूर्वक करते हैं, तब क्यों इस सृष्टि के रचयिता ईश्वर तत्व पर किसी चर्चा, तर्क से घबराते हैं? क्यों किचित् मतभेद होने मात्र से फतवे जारी करते हैं, आगजनी, हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। क्या सृष्टि के निर्माता ईश्वर तत्व की सत्ता किसी की शंका व तर्क मात्र से हिल जायेगी, मिट जायेगी ? यदि ईश्वर तर्क, विज्ञान वा विरोधी पक्ष की आस्था व विश्वास तथा अपने पक्ष की अनास्था व अविश्वास से मिट जाता है, तब ऐसे ईश्वर का मूल्य ही क्या है? ऐसा परजीवी, दुर्बल, असहाय, ईश्वर की पूजा करने से क्या लाभ? उसे क्यों माना जाये? क्यों उस कल्पित ईश्वर और उसके नाम से प्रचलित कल्पित धर्मों में व्यर्थ माथापच्ची करके धनसमय व श्रम का अपव्यय किया जाये?

-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक (वैदिक वैज्ञानिक)
("वेदविज्ञान-अलोक:" से उद्धृत)

Monday, March 19, 2018

तिब्बत पर चीन के खूनी अत्याचारों के पचास वर्ष - डा.सतीश चन्द्र मित्तल

तिब्बत पर चीन के खूनी अत्याचारों के पचास वर्ष - डा.सतीश चन्द्र मित्तल

जवाहर लाल नेहरू ने 1935 में कहा कि तिब्बत एक स्वतंत्र देश है परन्तु चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो जाने पर, माओत्से तुंग की सरकार की भांति उन्होंने भी तिब्बत को चीन का आंतरिक मामला बतलाया, जो इतिहास की भयंकर भूल है। गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर, 1950 में नेहरू को लिखे एक पत्र में परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए लिखा- "मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि चीन सरकार हमें शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडम्बर में उलझा रही है। मेरा विचार है कि उन्होंने हमारे राजदूत को भी "तिब्बत समस्या शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने" के भ्रम में डाल दिया है। मेरे विचार से चीन का रवैया कपटपूर्ण और विश्वासघाती जैसा ही है।" सरदार पटेल ने अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को "किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा" कहा है। भविष्य में इसी प्रकार के उद्गार देश के अनेक नेताओं ने व्यक्त किए। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने चीनियों को तिब्बत का लुटेरा, राजर्षि टण्डन ने चीन सरकार को "गुण्डा सरकार" कहा। इसी प्रकार के विचार डा. भीमराव अम्बेडकर, डा. राम मनोहर लोहिया, सी. राजगोपालाचारी तथा ह्मदयनाथ कुंजरू जैसे विद्वानों ने भी व्यक्त किए हैं।

यह इतिहास तथा भूगोल का सामान्य छात्र भी जानता है कि भारत के तिब्बत के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सम्बंध अत्यन्त प्राचीन हैं। तिब्बत को विश्व की छत कहा गया है। स्वामी दयानन्द ने इसे "त्रिविष्टप" अर्थात् स्वर्ग कहा है, साथ ही आर्यों का आदि देश माना। सम्राट हर्षवर्धन कालीन तिब्बत के सम्राट सौगंत्सेन गैम्पों (617-649 ई.) के काल में उसने चीन को परास्त कर वहां की राजकुमारी वैन चैंग से विवाह किया तथा नेपाल की राजकुमारी भृकुटी से भी विवाह किया। तभी उन्हें भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा भी भेंट में मिली और तभी से बौद्ध धर्म वहां का धर्म बन गया। इसी समय तिब्बती यात्री थानंमी सान का भारत आना हुआ तथा भारत की भाषा तथा व्याकरण के आधार पर तिब्बती भाषा को संजोया गया।

राजनीतिक दृष्टि से तिब्बत कभी चीन का अंग नहीं रहा। ईसा से एक शताब्दी पूर्व मगध के एक राजा ने तिब्बत के विभिन्न समुदायों को संगठित किया था। यह सम्बंध अनेक वर्षों तक बना रहा। 7वीं शताब्दी तक मध्य एशिया के एक भू-भाग पर तिब्बत का आधिपत्य रहा। चीन का तिब्बत के साथ सम्बंध 7वीं शताब्दी में हुआ, वह भी चीन की पराजय के रूप में। 821 में चीन की तिब्बत के साथ युद्ध में भारी पराजय हुई तथा दोनों देशों की सीमाएं भी तय हो गर्इं। 1249-1368 तक मंगोलों का आधिपत्य अवश्य रहा। 1649-1910 तक मंचू शासक रहे। परन्तु तब से 1949 तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश रहा। 1947 में नई दिल्ली में हुए एफ्रो-एशियाई सम्मेलन में तिब्बत एक स्वतंत्र देश के रूप में आया। तब तक इस देश में भारतीय मुद्रा चलती थी तथा भारत की ओर से डाक व्यवस्था थी।

माओत्से तुंग को तित्बत के बिना चीन की आजादी अधूरी लगी। 1 जनवरी, 1950 को चीन सरकार ने घोषणा की कि तिब्बत की "मुक्ति" चीन सेना का एक मुख्य उद्देश्य है। अत: 7 अक्तूबर, 1950 को चीन ने तिब्बत पर विशाल सेनाओं के साथ आक्रमण कर दिया। 40,000 चीनी सेना तिब्बत के 410 किलोमीटर भीतर तक घुस गई। भारत को इसकी जानकारी 25 अक्तूबर को मिली। अप्रैल, 1951 में चीन ने तिब्बत को हड़प लिया। 1954 में भारत के साथ एक समझौता हुआ, जिसमें भारत ने दब्बू नीति का परिचय देते हुए तिब्बत को चीन का क्षेत्र स्वीकार कर लिया।

स्वाभाविक रूप से चीन के दबाव से तिब्बत में बेचैनी तथा विद्रोह की भावना भड़की। 1956-1958 के दौरान तिब्बत में स्वतंत्रता के लिए कई संघर्ष हुए। 1959 तिब्बत के स्वतंत्रता इतिहास में बड़ा संघर्ष का वर्ष रहा। चीन ने स्वतंत्रता आन्दोलन को दबाने के लिए सभी हथकण्डे अपनाए। हजारों तिब्बतियों को पकड़कर चीन ले जाया गया तथा उन्हें कम्युनिस्ट बनाया गया। लगभग 60,000 तिब्बतियों का बलिदान हुआ। 11 हजार से अधिक को चीन की जेलों में रखा गया। तिब्बत के अन्न भण्डार चीन ले जाए गए। 50 लाख चीनियों को तिब्बत में बसाने की योजना बनी। सोना, चांदी तथा यूरोनियम आदि बहुमूल्य पदार्थ चीन ले जाए गए। तिब्बत के धर्म गुरुओं तथा बौद्ध भिक्षुओं का अपमान किया गया। उन्हें "मुण्डित मस्तक" "चीवरधारी आवारा", "लाल रंग का चोर" आदि कहकर अपमानित किया गया। करीब 27 प्रतिशत आबादी का सफाया कर दिया गया।

1959-2009 तक अर्थात पिछले 50 वर्षों से चीनियों का तिब्बत में यह खूनी दमन चक्र निरन्तर चल रहा है। चीन द्वारा तिब्बतियों या दलाई लामा से भी बार-बार बातचीत का नाटक किया जा रहा है। 2002-2006 तक 6 बार वार्ता का ढोंग हो चुका है। मार्च, 2008 में जब तिब्बत के युवक, महिलाएं तथा नागरिक स्वतंत्रता संघर्ष की पचासवीं वर्षगांठ मनाने#े के लिए प्रदर्शन रहे थे तब चीन सरकार ने घिनौने तरीके से उनका दमन किया। स्थान-स्थान पर चीनी सेना ने पहले स्वयं भिक्षुओं का चोला पहनकर उन्हें उसकाया तथा बाद में सामूहिक हत्या एवं नरसंहार किए। तिब्बत में विदेशी पत्रकारों के घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया। मोबाइल व इन्टरनेट सेवा यह कहकर बन्द कर दी कि इसमें सुधार करना है। विदेश मंत्री याग जीयेची ने विश्व शक्तियों को चेतावनी दी कि वे दलाई लामा की चीन विरोधी नीतियों को जरा भी प्रोत्साहन न दें। इतना ही नहीं, बौद्ध भिक्षुओं को देशभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले बौद्ध शिविरों पर ताले लगा दिए गए।

परन्तु तिब्बतियों ने अपने संघर्ष को जारी रखा। बीजिंग में होने वाले ओलम्पिक में विश्व के देशों के सम्मुख अपनी बात रखी। स्थान-स्थान पर ओलम्पिक मशालें न ले जाने देने या बुझाने का प्रयास किया। इसका प्रारम्भ ओलम्पिक के प्राचीन नगर एथेन्स से किया। इसके लिए लन्दन, पेरिस, सान फ्रांसिस्को आदि देशों में भी प्रदर्शन हुए। दिल्ली की सरकार ने दब्बू नीति का परिचय देते हुए 17 अप्रैल,2008 को उस मार्ग को ही बंद कर दिया जिस ओर से मशाल जानी थी। 2-3 किलोमीटर की सुरक्षा के लिए 21,000 सुरक्षा कर्मचारी लगाए गए। प्रदर्शनकारियों ने राजघाट पर गांधी का चित्र लेकर प्रदर्शन किया। विश्व भर के दबाव के बाद चीन ने पुन: बातचीत का ढोंग रचा। मई के प्रारम्भ में दलाई लामा के दो प्रतिनिधियों से बात हुई, परिणाम वही ढाक के तीन पात। चीन सरकार ने दलाई लामा को अनेक गालियां दीं, अपराध करने वाले, अलगाववादी, फ्राड आदि कहा। सही बात तो यह कि चीन नहीं चाहता कि लोग दलाई लामा का स्मरण भी करें।

प्रश्न यह है भारत कब तक मूकदर्शक बन अपनी दब्बू नीति का परिचय देता रहेगा? भारत को तिब्बत के बारे में पुनर्विचार करना होगा। यह यद्यपि सही है कि चीन तिब्बत में धार्मिक स्वतंत्रता तथा सांस्कृतिक विरासत के साथ अधिक दिनों तक खिलवाड़ नहीं कर सकेगा। लेकिन यह जरूरी है कि भारत कोई ठोस और सबल सुरक्षा नीति अपनाए। प्रो. परिमल दास का यह कथन सही है कि तिब्बत की आजादी में ही भारत का राष्ट्रीय हित निहित है। जब तक तिब्बत स्वतंत्र नहीं होगा तब तक भारत और चीन के बीच स्थायी मित्रता भी नहीं हो सकती है।

Monday, February 26, 2018

विक्षित - अविक्षित

विक्षित - अविक्षित

आपकी पढाई का कोई महत्त्व नहीं रहता है यदि आपके द्वारा फेका गया कचरा अगली सुबह कोई अनपद व्यक्ति उठाता है॥

Saturday, January 13, 2018

कौन कहे तेरी महिमा कौन कहे तेरी माया। - Lyrics

कौन कहे तेरी महिमा कौन कहे तेरी माया।


कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।
किसी ने हे परमेश्वर तेरा।...-२ अंत कभी ना पाया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
अज अमर अविनाशी कर्ण कर्ण में व्यापक है। -२
सबसे पहला उपदेशक और अध्यापक है -२
गुरुओ का भी गुरु है इश्वर।...-२ ऋषियो ने फ़रमाया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
किसी ने हे परमेश्वर तेरा अंत कभी ना पाया
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...

सारे सूरज चाँद सितारे भी तुझमे है। -२
सभी समुन्दर सभी किनारे भी तुझमे है। -२
श्रुष्टि के अन्दर बाहर तू।...-२  एक समान समाया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
किसी ने हे परमेश्वर तेरा अंत कभी न पाया
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...

हर प्रलय के बाद जगत निर्माण करें तू। -२
नियत समय पर इसका भी अवसान करें तू। -२
सदा तुझे अनगनित कंठो ने।...-२ झूम झूम कर गाया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
किसी ने हे परमेश्वर तेरा अंत कभी न पाया
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...

तुझको ढूंढा रात में और दिन में ढूंढा है।...-२
पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण में ढूंढा है।...-२
थके पथिक सब ढूंढ-ढूंढ के।...-२ कही नज़र न आया।...
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...
किसी ने हे परमेश्वर तेरा अंत कभी न पाया
कौन कहे तेरी महिमा, कौन कहे तेरी माया।...

पथिक।...