ओ३म्
अथ सोमगुणानाह।
ऋग्वेद २.१४ सुक्तः गुरुत्वम् ।
ऋग्वेद की इस सूक्त की विशेषता और महत्व. ।
"प्रथम मन्त्र में सोम के गुणों को चित्रित करते हैं, इस सूक्त में "अध्वर्यवो" को संबोधित किया है ।
आज के समय जो वैज्ञानिक है उनकी खोज करने का तरीका बड़ा कष्ट देना वाला है।
-वह कष्ट जो समय खूब लेता है ।
-वह कष्ट जो धन खूब लेता है ।
-वह कष्ट जो विरोध उत्पन करता हैं ।
-वह कष्ट जो असफलता देता है, ऐसे विज्ञानं का क्या फ़ायदा जो इतने भयंकर कष्ट युक्त हो ? आइये आप सभी को प्राचीन काल का विज्ञानं जो इश्वर द्वारा दिया है उसके विषय में बताते हैं ।
हमारे भारतवर्ष के प्राचीन युग से सबसे आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाओं वेद में ही निहित हैं ।
आज ऋग्वेद से सबसे आधुनिक वैज्ञानिक सभ्य सामाजिक अवधारणाओं से पता चलता है कि हमें किस प्रकार "अध्वर्यवो" से सोम का विस्तार करना चाहिए ।
१. सर्वोच्च प्राथमिकता - उत्तम शिक्षा व्यवस्था
समाज में ‘सोम’ के विस्तार प्रसार के लिए उच्चतम शिक्षा प्राप्त कराने हेतु गुरुकुल, उत्तम शिक्षक गण और अनुसंदान की सुविधान की सुविधाएं उपलब्ध कराओ।
अध्वर्यवो भरतेन्द्राय सोममामत्रेभि: सिञ्चता मद्यमन्ध: ।
कामी हि वीर: सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि ॥ ऋग्वेद २.१४.१
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले मनुष्यो ! तुम जो (एष: ) यह (कामी) कामना करने के स्वभाव वाला (वीर:) वीर ( वृष्णे) बल बढ़ाने के लिए (अस्य) इस सोम रस के (पीतिम्) पान को (वष्टि) चाहता है, (तत् इत्) उसे (सदम्) पाने योग्य सोम (हि) को निश्चय से तुम (जुहोत) ग्रहण करो (इन्द्राय) और परमैश्वर्य के लिए (अमत्रेभि:) उत्तम पात्रों से (मद्यम्) हर्ष देने वाले (अन्ध: ) अन्न को तथा (सोमम्) सोम रस को (सिञ्चत) सींचो और बल को (आ, भरत) पुष्ट करो ॥१॥
-परमैश्वर्य, अन्न, सुख, साधनोंं, बल, पौरुष की कामना करने के स्वभाव की वृद्धि के लिए उत्तम शिक्षा देने और उत्तम शिक्षक गण तैयार करने की और अनुसंधान की व्यवस्था करो ।
२. द्वितीय प्राथमिकता - उत्तम जल संरक्षण नीति
अध्वर्यवो यो अपो वव्रिवांसं वृत्रं जघानाशन्येव वृक्षम् ।
तस्मा एतं भरत तद्वशायँ एष इन्द्रो अर्हति पीतिमस्य ॥ ऋग्वेद २.१४.२
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को अहिंसा की इच्छा करने वालो ! (य: ) जो सूर्य (वब्रिवांसं ) आवरणकरने वाले (वृत्रम्) मेघ को (अशन्येव) बिजुली के समान(वृक्षम्) वृक्षको (जघान) मारता है अर्थात दहशक्ति से भस्मकरदेता है और (आप: ) जलों को वर्षाता तथा जो (एष: ) यह (इन्द्र: )
ऐश्वर्यवान्जन (अस्य) सोमलतादि रस के (पीतिम्) पीने को (अर्हति) योग्य होता है इस कारण (तद्वशाय) उन उन पदार्थों को कामना करनेवाले के लिए (यतम्) उक्त पदार्थ द्वय को धारण करो अर्थात् उन के गुणों को अपने मन में निश्चित करो ॥२॥
-वर्षा का जल सब से उत्तम जल होता है. इस के संग्रह और सदुपयोग की व्यवस्था द्वारा जैविक कृषि की उत्तम व्यवस्था करो.
३. तृतीय प्राथमिकता - पर्यावरण संरक्षण वन सम्पदा का महत्व
अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान यो गा उदाजदप हि वलं व: ।
तस्मा एतमन्तरिक्षे न वातमिन्द्रं सोमैरोर्णत जूर्ण वस्त्रै: ॥ ऋग्वेद २.१४.३
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) यज्ञ संपादन करने वाले जनों ! (य: ) जो (दृभीकम्) भयङ्कर प्राणी को (जघान्) मारता है किस को कि (य: ) जो (गा: ) गौओं को (उदाजत्) विविध प्रकार से फैंके अर्थात उठाय उठाय पटके और मारे और (बलम्) बल को (अप, व: ) अपवरण करें रोकें ( तस्मै) उस के लिए (हि) ही (एतम्) इस यज्ञ को (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वातम्) पवन के ( न) समान वा(इन्द्रम्) मेघों के धारण करने वाले सूर्य को (वस्त्रै: ) वस्त्रों से (जू: ) बुड्ढे के(न) समान(सोमै: ) ओषधियों वा ऐश्वर्यों से (आ, उर्णुत्)। आच्छादित करो अर्थात् अपने यज्ञ धूम से सूर्य को ढापो.॥३॥
-हमारी पृथ्वी पर एक पुराने वस्त्र का आवरण है,( यह आवरण घने बादलों जैसा होता है. इस मे छिद्र नहीं होने चाहियें , यह नीचे दिए चित्र से स्पष्ट हो जाएगा ) इस आवरण के द्वारा ही पृथ्वी पर औषधि वनस्पति अन्न इत्यादि सम्भव हो पाए हैं । परंतु इस आवरण के छिद्रो के कारण अंतरिक्ष मे पवन और मेघों द्वारा ऐसे विनाशकारी बलशाली उत्पात होते है जो गौओं और सब नगरीय व्यवस्थाओं को बार बार उठा उठा कर पटक देते हैं इस आवरण के छिद्रों को यज्ञादि कार्यों से ढको. ( वेदो का स्पष्ट संकेत सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं की ओर है, जो पर्यावरण के संरक्षण पर ध्यान न देने के कारण विश्वस्तर पर जलवायु का तपमान बढने से उत्पन्न हो रहा है।)
४. ओज़ोन आवरण के संरक्षण में वन सम्पदा और जीवन शैिली का मह्त्व
अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसं नवतिं च बाहून् ।
यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्र सोमस्य भृथे हिनोत ॥ ऋग्वेद २.१४.४
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) सब के प्रिय चरणों को करने वाले विद्वानों ! तुम (य: ) जो जन (उरुणम्) आच्छादन करने वाले (चख्वांसम्) मारने वाले के प्रति मारने वाले को ( जघान्) मारे और ( नव, नवितम्) न्यन्यानवे (बाहून्) बाहुओं के समान सहाय करने वालों को (च) भी मारे (य: ) जो (अर्बुदम् ) दश क्रोड़ (नीचा) नीचों को (अव, बबाधे) बिलोता है (तम्) उस (इन्द्रम्) बिजुलीके समान सेनापति को (सोमस्य) ऐश्वर्य के (भृथे) धारण करने माइं (हिनोत्) प्रेरणा देओ॥४॥
-इस आच्छादन को क्षति पहुंचाने वाले सीमित श्रेणियों के तत्वों पर नियंत्रण करो ,तथा इस आवरण की सुरक्षा करने वाले असंख्य वनस्पतियों और व्यवस्थित जीवनशैलि की आवश्यकता को युद्ध स्तर पर एक कुशल सेनापति की तरह कार्यान्वित करो ( वनसम्पदा का संरक्षण और वृक्षारोपण का महत्व और सात्विक जीवन शैलि को अपना कर ही ऐसा होगा. ) पर्यावरण में व्यवस्था ठीक होने से वर्षा यथा समय होगी, आंधी तूफान तंग नहीं करेंगे.
५. जमाखोरों काले धन के व्यापारियों ,भ्रष्ट तत्वों को नष्ट कर के दरिद्रता दुर्भिक्ष से मुक्त समाज स्थापित करो
अध्वर्यवो य: स्वश्नं जघान य: शुष्णमशुषं यो व्यंसम् ।
य: पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.५
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) अपने को यज्ञ कर्म की चाहना करने वाले वा ) सब के प्रिय चरणों को करने वालो ! तुम (य: ) जो जन सूर्य जैसे(स्वश्णम्) सुन्दर मेघ को वैसे शत्रु को (जघान्) मारता है वा (य: ) जो (शुष्णम्) सूखे पदार्थ को (अशुषम्) गीला वा (य: ) जो (व्यंसम्) शत्रु को निर्भुज करता वा (य: ) जो (नमुचिम्) अधर्मात्मा (पिप्रुम्) प्रजापालक अर्थात् राजाको वा (य: ) जो ( रुधिक्राम्) राज्य व्यवहारो को रोकने वलों को निरन्तर गिराता है (तस्मै) उस ( इन्द्राय) सूर्य के समान सेनापति के लिये (अन्धस: )अन्न (जुहोत्) देओ ॥५॥
-पिप्रुम(राजा) वे स्वार्थी जन जो केवल अपना ही पेट भरते हैं , और नमुचि (अधर्मात्मा) – कर न देने वाला,दुर्भिक्ष कालिक मेघ के समान प्रजा के निमित्त कुछ भी सुख न देने वाला क्षमाके अयोग्य होते हैं । उन्हें किसी भी अवस्थामें (रुधिक्रा) राज्य शासन दण्ड व्यवस्था द्वारा क्षमा नहीं करना चाहिए.
६. प्राकृतिक आपदाओं से बचाव
आपदाओं के उपरान्त युद्धस्तरीय पुनर्वास योजना
अध्वर्यवो य: शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव पूर्वी:।
यो वर्चिन: शतमिन्द्रो सहस्रमवावपद् भरता सोममस्मै ॥ ऋग्वेद २.१४.६
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे ( अध्वर्यव: ) युद्धरूप यज्ञ को सिद्ध करने वालो! तुम लोगों में से (य: ) जो (शम्बर्स्य) जिस से स्वीकार किया जाता उस मेघ के (शतम्) सौ (पुर: ) पुरों को जैसे घोड़ों को (अश्मनैव: ) पत्थर से वैसे (विभेद) छिन्न भिन्न करता है (य: ) जो (इन्द्र: ) ऐश्वर्यवान् ( वर्चिन्: ) प्रदीप्त अपने सर्व बल से दैदीप्यमान राजा के (शतम्) सौ और (सहस्रम्) हज़ार (पूर्वी: ) पहले हुइ प्रजाओं को (अपावपत्) नीचा करता है (अस्मै) इस सेनेश के लिए (सोमम्) ऐश्वर्यको (भरत) धारण करो ॥६॥
-(सुदूर भूतकाल के समय से) जो आवरण उपयुक्त समय पर वर्षा इत्यादि की व्यवस्था प्रदान करता है उस आवरण की क्षति से उत्पन्न प्राकृतिक आपदाओं द्वारा आए संकट एवं विनाश को तत्काल युद्धस्तर पर निदान करने की व्यवस्था स्थापित करें ।
७.सातवीं प्राथमिकता - खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता
अध्वर्यवो य: शतमा सहस्रं भूभ्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान् न्यावृणग् भरता सोममस्मै ॥ ऋग्वेद २.१४.७
महर्षि दयानंद पदार्थ- हे (अध्वर्यव: ) युद्ध-यज्ञरूप सिद्धि के करने वाले जनो ! तुम (य: ) जो सूर्य के समान (भूम्या: ) भूमि के (उपस्थे ) ऊपर ( शतम्) सेकड़ों वा ( सहस्रम्) सहस्रों वीरों को (आ, अपवत्) बोता अर्थात गिरा देता दुष्टों को (जघन्वान् ) मारता वा (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होने वाले (आयो:) और प्राप्त हुए (कुत्सस्य) बाण आदि फैंकने वाले प्रजापति के (वीरान्) शत्रु बलों को व्याप्त होते वीरों को (नि,आवृणक्) निरंतर वर्जता है (अस्मै) इस के लिए (सोमम्) ऐश्वर्य को (भरत) पुष्टकरो ॥७॥
-कृषक एक योद्धा के समान उर्वरक भूमि में जो अन्नोत्पादन के लिए प्रयत्न करता है, उसे सहस्रों खर पतवार, कीटाणु इत्यादि शत्रु नष्ट करने के प्रयास करते हैं. इन से निपटने के लिए उत्तम वीर स्थापित करो.
( इस विषय को जैविक खेती में अत्यंतमहत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है.गौ माता के गोबर मूत्र इत्यादि से भूमि मे कृषि उत्पादन और जैविक खड़ पतवार कीट नियंत्रण विषय एकीकृत ( समन्वित) कीट प्रबंधन के नाम से आधुनिक कृषि विज्ञान का एक महत्वपूर्ण अनुसंधान का काम है )
८.अपव्यय निषेध एवं प्रतीकार
अध्वर्यवो यन्नर: कामयाध्वे श्रुष्टी वहन्तो नशथा तदिन्द्रे ।
गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.८
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) सब का हित चाहने वाले (नर: ) नायक मनुष्यो ! तुम (यत्) जिस राज्य या धन को (श्रुष्टी) शीघ्र (वहन्त: ) प्राप्त करते हुए (कामयाध्वे) उस की कामना करो ( नशथ) वा छिपाओ (तत्) उस (गभस्तिपूतम्) किरणों वा बाहुओं से पवित्र करे हुए को (इन्द्रे) सभापति के निमित्त (भरत) धारण करो । हे ( यज्यव: ) सङ्ग करनेवाले जनों ! तुम (श्रुताय)जिस का प्रशंसित श्रुति विषय है उस (इन्द्राय)सभापति के लिये(सोमम्) ओषधियों के रस को वा ऐश्वर्य को (जुहोत्) ग्रहण करो ॥८॥
-सामाजिक संसाधनों एवं धन का अनावश्यक, अनुपयोगी, अनुत्तरदायी, अनुत्पादक उपयोग रोकने एवं उन्हें समाजोपयोगी पशंसा योग्य उपयोग के लिये बचाने की व्यवस्था करें । राज्य के हित में किन विषयों को गोपनीय रखना है, इस पर अधिकारी वर्ग संयम स्वनियंत्रण और मर्यादा का पालन करना चाहिए
राज्याधिकारी वर्ग को राज्य हित में गोपनीयता का पालन करना चाहिए
९. प्रदूषण नियंत्रण
अध्वर्यव: कत्तर्ना श्रुष्टिमस्मै वने निपूतं वन उन्नयध्वम् ।
जुषाणो हस्त्यमभि वावशे व इन्द्राय सोमं मदिरं जुहोत ॥ ऋग्वेद २.१४.९
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) पुरुषार्थी जनों ! तुम (अस्मै) इस सभापति के लिये (वने) किरणों में (श्रुष्टिम्) शीघ्र (निपूतम्) निर न्तर पवित्र और दुर्गंध वा प्रमादपन से रहित पदार्थ (कर्त्तन) करो (वने) और किरणों में (उन्नयध्वम्) उत्कर्ष देओ जो (हस्त्यम्) हस्तों में उत्तम हुए पदार्थ को (जुषाण: ) प्रीति करता वा सेवन करता हुआ (मदिरम्) आनन्द देने वाली (सोमम्) सोमलतादिरस को ( अभि,वावशे) प्रत्यक्ष चाहता (तस्मै) उस सभापति के लिए और (व: ) तुम लोगोंको (इ न्द्राय) ऐश्वर्यवान जन के लिए उक्त पदार्थ को (जुहोत्) देओ.॥९॥
वैज्ञानिक विद्वतजन दुर्गंधित प्रदूषित जलों को सूर्य की किरणों द्वारा, लताओं इत्यादि के द्वारा दुर्गंध रहित और प्रदूषणमुक्त करें ।
१०.गो दुग्ध खाद्यान्न की पौष्टिकता
अध्वर्यव: पयसोधर्यथा गो: सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम् ।
वेदाहमस्य निभृतं म एतद् दित्सन्तं भूयो यजतश्चिकेत ॥ ऋग्वेद २.१४.१०
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: ) बड़ी बड़ी ओषधियों को सिद्ध करने वाले जनो ! तुम (यथा) जैसे (गो: ) गौ के (पयसा) दूध से (ऊध: ) ऐन बरा होता है वैसे (सोमेभि: ) खाई हुइ सोमादि ओषधियों के साथ (ईम्) जलको पी के (पृणत) तृप्त होवो जैसे (भोजम्) भोजन करनेवाले (इ न्द्रम्) ऐश्वर्यवानको (अहम्) मैं (व्द) जानूं (अस्य) इस की (निभृतम्) निश्चित पुष्टिको जानूं वैसे इस विषय को (भूय:: ) बार बार जो (चिकेत) जाने उस को तृप्त करो ॥१॥
-वनस्पतियों ,ओषधियों और गो दुग्ध जल के पौष्टिक तत्वो को अनुसंधान द्वारा अधिक गुणों से परिपूर्ण करो. इन विषयों पर अनुसंधान अविरल गति से चलता रहे ।
११. पारदर्शिता से धनोपार्जन और जीवन शैली को महत्व दो
अध्वर्यवो यो दिव्यस्य वस्वो य: पार्थिवस्य क्षम्यस्य राजा ।
तमूर्दरं न पृणता यवेनेन्द्रं सोमेभिस्तदपो वो अस्तु ॥ ऋग्वेद २.१४.११
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे! (अध्वर्यव: )राजसम्बन्धी विद्वानजनों ! (य: ) जो (दिव्यस्य ) प्रकाश में उत्पन्न हुए (वस्व: ) धन को वा (य: ) जो (पार्थिवस्य) पृथिवी मे विदित (क्षम्यस्य) सहनशीलता में उत्तम उस के बीच (व: ) तुम्हारे लिए ( राजा) राजा (अस्तु) हो. (तम्) उस (इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान को (यवेन्) यव अन्न से जैसे(ऊर्दरम्) मटका को वा डिहरा को (न) वैसे) (सोमेभि: ) सोमादि ओषधियों से पृणत) पूरो परि पूर्ण करो (तत्) उस (अप: ) कर्म को प्राप्त हू ॥११॥
प्रकृति से कृषि से जैविक अन्न से,ओषदि युक्त वनस्पतियों पारदर्शिता और सहनशीलता की शिक्षा का उपदेश ग्रहण करो और सब से बिना स्वार्थ के बांटो ।
१२. सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो
अस्मभ्यं तद् वसो दानाय राध: समर्थयस्व बहु ते वसव्यम् ।
इन्द्र यच्चित्रं श्रवस्या अनु द्यून् बृहद्वदेम विदथे सुवीरा: ॥ ऋग्वेद २.१४.१२
महर्षि दयानंद पदार्थ – हे (वसो) धन देने वाले (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त ! (सुवीर:) सु न्दर वीरों वाले हम लोग जो (ते) तुम्हारा (बहु) बहुत ( चित्रम्) अद्भुत (वसव्यम्) पृथिवी आदि वसुओंसेसिद्ध हुए ( बृहत् ) बहुत (राध: ) समृद्धि करने वाले धन को (श्रवस्या: ) अन्नों के लिए हित करने वाली पृथिवीके बीच (अनु द्यून्) प्रति दिन (विदथे ) विज्ञान रूपी संग्राम यज्ञ में (वदेम) कहें उस को हमारे लिए देने को आप (समर्थयस्य ) समर्थ करो ॥१२॥
सज्जनों का धन औरों के सुख के लिये और दुष्टों का धन औरों के दुःख के लिये होता है जो धन और ऐश्वर्यों की उन्नति के लिये सर्वदा प्रयत्न करते हैं वे पुष्कल वैभव पाते हैं । इस प्रकार एक अद्भुत सम्पन्न वैभव शाली राष्ट्र निर्माण करो ।
इति चतुर्द्दशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
प्रस्तुति:- आर्य्य रूद्र.