वेद का ज्ञान तो किसी एक युग या काल के लिए नहीं किसी एक देश या समाज के लिए नहीं। वेद का ज्ञान तो हर युग, हर काल, हर देश, हर समाज के लिए हैं।
Thursday, August 17, 2017
Wednesday, August 9, 2017
वेद की नित्यता (ETERNITY) का परम् प्रमाण
॥ओ३म्॥
वेद की नित्यता (ETERNITY) का परम् प्रमाण
*सत्यम शिवं शाश्वतम्* यानी आज की भाषा में प्रसिद्ध सिद्धांत *survival of the fittest* अर्थात जो वस्तु सबसे अधिक उपयोगी है वह उस समय भी जीवित रहती है जब अन्य अनुपयोगी या कम उपयोगी वस्तुएं नष्ट हो जाती है । आप 100 rs के नॉट की सेर भर मिठाई की अपेक्षा से अधिक रक्षा करते हैं क्यों कि नोट मिठाई की अपेक्षा से अधिक उपयोगी है । कुदरत अर्थात सृष्टि नियम भी उसी वस्तु की अधिक रक्षा करती है जो योग्यतम होती होती है । वेद सबसे पुराने है ।लाखों ग्रन्थ बने और नष्ट हो गए । हज़ारों धर्मशास्त्र बने और लुप्त हो गए । परन्तु इतने पुराने होते हुए भी वेद विद्यमान है । इस से ज्ञात होता है कि वेद योग्यतम ग्रन्थ हैं । योग्यतम न होते तो इस नियम से कभी के नष्ट हो गए होते । इनका पुराना होना ही इनकी योग्यता तथा उपयोगिता का प्रमाण है । दीर्घकाल में भिन्न भिन्न देशों में सैंकड़ों मत मतांतर और धर्मशास्त्र बने और बिगड़ गए । कराल काल के थपेड़ों से बचे रहना बताता है की कुदरत वेदों की रक्षा करती है । जैसे सैंकड़ों तूफ़ान जिन से बड़े बड़े मनुष्य निर्मित दीपक बुझ जाते हैं किन्तु सूर्य को नही बुझा सकते इसी प्रकार वेद भी है ।
- लेखनी सम्राट पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय
Sunday, August 6, 2017
विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका
॥ ओ३म् ॥
विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका
विश्वशान्ति में धर्म की भूमिका
आज हम इतिहास के जिस युग में यात्रा कर रहे हैं, वह मानवता के इतिहास में अब तक का सबसे अधिक चुनौती पूर्ण और विसंगति से भरा हुआ समय है। मानव समय-समय पर अनेक प्रकार के अभावों से जूझता रहा है, विज्ञान के विकास के कारण आज जबकि हम पहले से कहीं अधिक प्रकृति की प्रतिकूलता का सामना कर सकने की स्थिति में हैं, परन्तु फिर भी सुखी हेने के स्थान में विश्व अधिक दुःखी है, अधिक अभावों से भरा हुआ है। यद्यपि नित नये उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के सम्प्रदाय सुखी होने का मन्त्र हमें देते रहते हैं, लेकिन मनुष्य की समस्यायें अन्त होने के स्थान पर सुरसा के मुख की भाँति दीर्घ दीर्घतर होती चली जा रही हैं। आज जिस रूप में धर्म को परिभाषित किया जा रहा है और उसका अनुष्ठान पहले की अपेक्षा अधिक कठोरता से किया भी जा रहा है, परन्तु मनुष्य पर इतने अधिक दबाव हैं कि वह चाहकर भी अपनी इस अशान्ति का कोई समाधान ढ़ूँढने में असफल रहा है। इसका यह तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है कि या तो धर्म शक्तिहीन हो गया है या फिर धर्म मिथ्या या फिर जिस प्रकार धर्म को समझना चाहिये और समझकर आचरण में लाना चाहिये, यह सारी प्रत्रिया दोषपूर्ण है।
आचार्य मनु धर्म का लक्षण देते हुए कहते हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमत्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।15।।[1]
विश्वशान्ति की दृष्टि से मनु के उक्त धर्म के लक्षण में सभी तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं, उसमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन आज का विश्व इसमें क्षमा, अस्तेय, सत्य और अत्रोध (शान्ति) को अपने जीवन में उतार ले तब भी मानवता का शान्ति का पथ प्रशस्त हो सकता है।
महर्षि दयानन्द धर्म और अधर्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- जो पक्षपातरहित, न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग पाँचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञापालन, परोपकार करना रूप ‘धर्म’ जो इससे विपरीत वह ‘अधर्म’ कहाता है क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो परस्पर विरुद्धाचरण सो अधर्म क्यों कर न कहावेगा? देखो! किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है। यही पक्षपात से मिथ्या और विरुद्धाचार अधर्म और जब तीसरे ने दोनों से पूछा कि सत्य बोलना धर्म अथवा असत्य? तब दोनों ने उत्तर दिया कि सत्य बोलना धर्म और असत्य बोलना अधर्म है, इसी का नाम धर्म जानो परन्तु यहाँ पाँच परीक्षा की युक्ति से सत्य और असत्य का निश्चय करना योग्य है।[2]
महर्षि ने समस्या का साक्षात्कार करते हुए कहा है-‘किसी ने किसी से पूछा कि सत्य क्या है? उसको उसने उत्तर दिया जो मैं मानता हूँ। फिर उसने पूछा और जो वह मानता है वा जो मैं मानता हूँ वह क्या है? उसने कहा कि अधर्म है।’[3] समस्या का मूल कारण यह है कि हम सोचते हैं कि जो मैं मानता हूँ, वह सत्य और हितकारी और जो मेरे लिये हितकारी है, वही सबके लिये हितकारी और पथ्य है। उसको मनवाने और लागू करने के लिये हम अपनी सारी शक्ति झोंक देते हैं और दण्ड के बल पर मनवाकर ही दम लेते हैं। विश्व अशान्ति को बढ़ावा देने में अकेले इस तथ्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस समस्या के परिहार के लिये मनु ने रास्ता सुझाया है, वे धर्म की एक और परिभाषा देते हुए कहते हैं-
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।[4]
उक्त धर्म के लक्षण में यद्यपि मनु ने वेद, स्मृति और सदाचार को भी धर्म का आधार प्रतिपादित किया है। परन्तु चतुर्थ प्रकार ‘स्वस्य च प्रियमात्मनः’ के द्वारा धर्म के जिस रूप का प्रतिपादन किया है, उसका मापदण्ड बड़े-बड़े शास्त्र नहीं हैं, दूसरों के द्वारा आचरण में लाया गया आदर्श हेने के कारण प्रायः अग्राह्य रह जाने वाला आचरण नहीं है। धर्म के इस लक्षण में केवल इतना कहा गया है कि जो अपनी आत्मा को प्रिय है, वही व्यवहार हम दूसरों के साथ करें। धर्म की इससे सरल और ग्राह्य परिभाषा नहीं की जा सकती। कोई भी जीव यह नहीं चाहता कि हमें जबर्दस्ती किसी भी मार्ग पर चलने के लिये बाध्य किया जाए। यदि हमें किसी कर्म को करने के लिये बाध्य किया जाता है, तो हम भले ही प्रतीकार न कर पायें, पर मन ही मन दुःखी होते हैं। सभ्य मनुष्यों की भाषा में इसीका नाम गुलामी है। हम किसीके अपराध को ही क्षमा न करें, हम उसके अस्तित्व को भी स्वीकार करें और यह मानें जितना इस विश्व में मेरा अधिकार है, उतना ही दूसरे का है। यही न्याय और पक्षपातरहित स्वीकृति धर्म है और इसका मूल है-क्षमा।
जहाँ भारतीय धर्म इतना अधिक सहनशील है कि वह दूसरे के अस्तित्व के साथ-साथ उसके अधिकार को भी स्वीकृति प्रदान करता है, वहीं इस्लाम इतना अधिक असहनशील है कि वह अपने और अपने स्वार्थ के अलावा किसी को मानने को तैयार नहीं है। कुरान में लिखा है-‘अल्लाह के मार्ग में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं। मार डालो तुम उनको जहाँ पाओ, कतल से कुप्र बुरा है। यहाँ तक कि उनसे लड़ो कि कुप्र न रहे और होवें दीन अल्लाह का।। उन्होंने जियादती करी तुम पर उतनी ही तुम उन के साथ करो।।’[5]
महर्षि दयानन्द कुरान के उक्त वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में कहते हैं-‘जो कुरान में ऐसी बातें न होती तो मुसलमान लोग इतना बड़ा अपराध जो कि अन्य मत वालों पर किया है न करते, और विना अपराधियों को मारना उन पर बड़ा पाप है। जो मुसलमान के मत का ग्रहण न करना है उसको कुप्र कहते हैं अर्थात् कुप्र से कतल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। अर्थात् जो हमारे दीन को न मानेगा उसको हम कतल करेंगे सो करते ही आये, मजहब पर लड़ते-लड़ते आप ही राज्य आदि से नष्ट हो गये और उनका मत अन्य मतवालों पर अतिकठोर रहता है। क्या चोरी का बदला चोरी है? कि जितना अपराध हमारा चोर आदि करें क्या हम भी चोरी करें? यह सर्वथा अन्याय की बात है। क्या कोई अज्ञानी हमको गालियाँ दे क्या हम भी उसको गाली देवें? यह बात न ईश्वर की और न ईश्वर के भक्त विद्वान् की और न ईश्वरोक्त पुस्तक की हो सकती है। यह तो केवल स्वार्थी ज्ञानरहित मनुष्य की है।।36।।’[6]
आज जो विश्व में अशान्ति है, उसका मुख्य कारण यही है कि जो हमारी बात नहीं मानेगा, उसको हम जीने नहीं देंगे। इसी दुप्रवृत्ति का कुफल आज का आतंकवाद है। कुरान में एक अन्य स्थान पर कहा है-‘बस मत कहा मान काफिरों का, और झगड़ा कर उनके साथ झगड़ा बड़ा।। और बदल डालता है अल्लाह बुराइयों उनकी को भलाइयों से।।’[7] जो खुदा, पैगम्बर और कुरान को नहीं मानते वे काफिर हैं। इन तीनों को न मानने वाले हरेक व्यक्ति से झगड़ा करने की प्रेरणा कुरान दे रही है। और वह स्पष्ट रूप से काफिरों गर्दनों पर मारने का निर्देश देती हुई कहती है-‘बस जब तुम मिलो उन लोगों से कि काफिर हुए बस मारो गर्दनें उनकी यहाँ तक कि जब चूर कर दो उनको बस दृढ़ को कैद करना।। और बहुत बस्तियाँ हैं कि वे बहुत कठिन थीं शक्ति में बस्ती तेरी से, जिसने निकाल दिया तुझ को मारा हमने उसको, बस न कोई हुआ सहाय देने वाला उनकी।। तारीफ उस बहिश्त की कि प्रतिज्ञा किये गये हैं परहेजगार, बीच उसके नहरें हैं बिन बिगड़े पानी की, और नहरें हैं दूध की कि नहीं बदला मजा उनका, और नहरें हैं शराब की मजा देने वाली वास्ते पीने वालों के, और नहरें हैं शहद साफ किये गये की, और वास्ते उनके बीच उसके मेवे हैं प्रत्येक प्रकार से दान मालिक उनके से।।’[8] ‘और काटें जड़ काफिरों की।। मैं तुम को सहाय दूँगा साथ सहस्र फरिश्तों के पीछे-पीछे आने वाले।। अवश्य मैं काफिरों के दिलों में भय डालूँगा, बस मारो ऊपर गर्दनों के मारो उनमें से प्रत्येक पोरी (संधि) पर।।’[9]
आज इस्लाम विश्व का सबसे बड़ा सम्प्रदाय है, उसके सबसे अधिक अनुयायी हैं। जब लगभग विश्व की 40 प्रतिशत आबादी आतंक की शिक्षा घुट्टी में प्राप्त कर रही है, उनको यह सिखाया जा रहा है कि काफिरों को मारने से बहिश्त मिलता है, तभी 11 सितम्बर वाली घटनायें घटित होती हैं। इसलिये मनु की क्षमाशीलता विश्वशान्ति की दृष्टि से बहुत महत्त्व है। यदि मानव क्षमाशील हो जाए, जैसा वह अपने लिये चाहता है, वही दूसरों के साथ व्यवहार करे तो विश्वशान्ति काफी कुछ सुरक्षित हो सकती है।
मनु के धर्म के लक्षण में विश्वशान्ति की दृष्टि से दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु ‘अस्तेय’ है। स्तेय का अर्थ चोरी करना है, जबकि अस्तेय चोरी न करने का नाम है।
[1]. मनु06.92.
[2]. व्यव0भा0
[3]. व्यव0भा0
[4]. मनु02.12.
[5]. मं01, सि02, सू02, आ0190-191, 193-194.
[6]. स0प्र0चतु0समु0
[7]. मं04, सि019, सू025, आ025, 52, 70, 71.
[8]. मं06, सि026, सू047, आ04, 13, 15.
[9]. मं02, सि09, सू08, आ07, 9, 12.
आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन
॥ ओ३म् ॥
आचार्य मनु का आर्थिक दर्शन
प्रत्येक चिन्तनशील मनुष्य यह जानता है कि शरीर धारण करने वाला जीव सदा-सर्वदा के लिये इस धरा पर नहीं आया है। अनन्त यात्रा के एक पड़ाव के रूप में वह यहाँ कुछ समय के लिये ही रुक सकता है। जिसे यात्रा पर आगे जाना है, वह हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकता। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने अग्रिम यात्रा को यात्रा न रहने देने के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों को जीवन के लिये अपरिहार्य माना है। पुरुषार्थ शब्द से अभिप्राय हैः-पुरुष का प्रयोजन अर्थात् मानव जीवन का लक्ष्य।
साधारण मनुष्य अपने जीवन का प्रयोजन अर्थ और काम समझता है। यदि इस आधार पर मनुष्य और पशु का विश्लेषण करना चाहें तो ज्ञात होता है कि मनुष्य अर्थ और काम में से अर्थ को प्रधानता देता है, जबकि पशु काम को। जहाँ मनुष्य जड धन की उपासना में लगा रहता है, वहाँ पशु जडत्व से सर्वथा भिन्न शरीर की आवश्यकताओं तक सीमित रहता है। लेकिन मात्र काम अर्थात् विषय-वासनाओं की दृष्टि से भी यदि दोनों का मूल्याङ्कन करें तो मनुष्य ने इस दृष्टि से भी पशुओं को पीछे छोड़ दिया है।
भोगों को प्राप्त करने के लिये अर्थ की आवश्यकता होती है और उसे प्राप्त करने में मनुष्य धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, उचित-अनुचित का विचार नहीं करता है और यहीं से उसके पतन का प्रारम्भ हो जाता है। विना उचित रीति से अर्जित किया हुआ धन अर्थ न रहकर अनर्थ बन जाता है।
मनुस्मृति ने धर्म के निम्न दस लक्षण बताये हैः-
1. धृति, 2. क्षमा, 3. दम, 4. अस्तेय, 5. शौच, 6. इन्द्रिय-निग्रह, 7. धी, 8. विद्या, 9. सत्य, 10. अत्रोध।[1] इनमें से पाँचवाँ स्थान शौच अर्थात् अन्तः और बाह्य शुद्धि का है। शुद्धि का उपाय बताते हुए मनु कहते हैः-
‘सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।’[2]
सब प्रकार की शुचियों में अर्थ की शुद्धता सबसे बढ़कर है। जो अर्थ की दृष्टि से शुद्ध है, वही शुद्ध है, लेकिन जिसने अपने को मिट्टी, जल आदि साधनों से शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है।
यहाँ यह विचार करने का विषय है कि जिसने मिट्टी, जल, साबुन आदि से मलों को निर्मूल करने वाले साधनें से अपने को शुद्ध किया है, वह शुद्ध नहीं है, वरन् जिसने न्यायपूर्वक धन को अर्जित किया है, वह शुद्ध है, ऐसा क्यों? अपने आशय को स्पष्ट करते हुए तथा मन में उठने वाली उक्त शङ्का का समाधान करते हुए मनु कहते हैः-
‘अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।’[3]
शरीर की शुद्धि जल से होती है, मन की शुद्धि सत्य का आचरण करने से, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है, जबकि ज्ञान से बुद्धि निर्मल होती है। उक्त वक्तव्य से मनु ने स्पष्ट कर दिया है कि शरीर की शुद्धि का एकमात्र साधन जल है, जबकि अन्तःकरणसहित आत्मशुद्धि के साधन चार हैः-1. सत्य, 2. ज्ञान, 3. तप और 4. ब्रह्मविद्या। जो व्यक्ति सत्य और ज्ञान पर चल पड़ता है, वह अनीतिपूर्वक धन का अर्जन नहीं कर सकता या यह कह सकते हैं कि जिसे अपनी आत्मा को शुद्ध करना है, वह सत्य और ज्ञान की उपेक्षा नहीं कर सकता और सत्य एवं ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला अनीति का आश्रय कैसे ले सकता है?
छान्दोग्योपनिषद् कहती हैः-
‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
स्मृतिप्रतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्र्रमोचनम्।’[4]
भोजन की शुद्धि से बुद्धि निर्मल होती है। बुद्धि की निर्मलता से स्मृति निश्चल होती है और स्मृति की निश्चलता से सब ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं।
लोक में कहावत प्रचलित है कि ‘जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन’ इसीलिये सम्भवतः, प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, तपस्वी जन प्रत्येक के घर का भोजन स्वीकार नहीं करते थे। गुरु नानक देव के जीवन में एक ऐसा प्रसङ्ग आता है कि उन्होंने एक नितान्त निर्धन बढ़ई के घर में रूखी-सूखी रोटी खाना स्वीकार किया, परन्तु उस क्षेत्र के क्षेत्रपति के समृद्ध भोजन को खाने से मना कर दिया और उसके दुराग्रह करने पर बढ़ई लालो के घर की रोटी एक हाथ में तथा दूसरे हाथ में उसके घर की पूड़ी लेकर और निचोड़कर दिखा दिया कि बढ़ई का धन परिश्रम और ईमानदारी से अर्जित है, इसलिये उसमें से अमृत टपक रहा है, जबकि क्षेत्रपति का धन अन्यायपूर्वक, निर्धनों का शोषण करके अर्जित किया गया है, अतः, उसमें से रक्त प्रवाहित हो रहा है। इसलिये जब तक यह ज्ञात न हो जाये कि धन किस प्रकार अर्जित किया गया है, तब तक उस घर का अन्न, जल ग्रहण नहीं करना चाहिये।
इसी प्रकार का एक प्रसङ्ग काशी का है। पं0 गदाधर शास्त्री गङ्गा के तट पर स्थित एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे और उस पाठशाला से लगी भूमि पर खेती करके अपना और अपने परिवार का निर्वाह किया करते थे। कुछ समय पश्चात् पण्डित जी के घर पुत्र का जन्म हुआ। इस उपलक्ष्य में हिजड़ों ने आकर गाना बजाना किया, इस पर घर में लेटी हुई प्रसूता ब्राह्मणी ने उनसे कहा कि इस समय घर में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मैं तुम्हें उपहारस्वरूप दे सकूँ। इस पर वे बोले ब्राह्मणी कोई बात नहीं, यह बालक दीर्घायु हो, हम फिर कभी आकर अपना उपहार ले जायेंगे। इस समय ब्राह्मणी ने अपने मन ही मन सङ्कल्प किया कि जब यह बालक युवा होकर प्रथम धन अर्जित करके लायेगा तो मैं उसे इन्हें दे दूँगी।
पण्डित जी का बालक कुछ काल में विद्वान् होगया। पण्डित जी किसी सेठ, साहूकार या राजा के घर जाते नहीं थे। राजा ने विद्वानों की सभा बुलायी, पण्डित जी का कोई शुभ-चिन्तक उस बालक को अपने साथ राजा की सभा में ले गया। जब सभा में पण्डितों को दक्षिणा दी जा रही थी, तो राजा ने पूछा कि यह बालक किसका है? एक सभासद् ने बताया कि यह पं0 गदाधर शास्त्री का सुपुत्र है। राजा ने उस बालक को पाँच सौ रूपये की थैली भेंट की। बालक ने वह लाकर खुशी-खुशी अपनी माँ को सौंप दी। जिस माता ने कभी दस रूपये न देखे हों, अचानक पाँच सौ रूपये पाकर मन में लोभ आगया। उसे हिजड़ों के लिये किया गया अपना सङ्कल्प स्मरण था, लोभ के कारण उसने उसके दो भाग कर दिये और ढाई सौ अपने पास रख लिये। आज पण्डित जी के लिये अनेक प्रकार के व्यञ्जन बनाये गये थे, पण्डित जी भोजन करके गङ्गा किनारे छात्रों को पढ़ाने चले गये और पढ़ाने के पश्चात् भगवान् के ध्यान में बैठे, परन्तु आज उनका मन ही नहीं लग रहा था।
पण्डित जी उठ खड़े हुए और घर आकर पत्नी से पूछा कि आज भोजन कहाँ से आया था? पत्नी ने बताया कि आज आपका बेटा राजदरबार गया था, वहाँ राजा ने पाँच सौ रूपये भेंट में दिये, लेकिन इसके जन्म के समय, जब हिजड़े नाचने-गाने आये थे, मैंने सङ्कल्प किया था कि युवा होने पर इसकी प्रथम कमाई को इन हिजड़ों को दे दूँगी, पर अधिक धन होने के कारण मैंने उसे आधा दे दिया और आधे रूपयों से भोजन की व्यवस्था की है। इस पर पण्डित जी बोले, प्रथम तो यह राजा का धन था, फिर यह हिजड़ों को हो गया, फिर भला मेरा मन कैसे एकाग्र हो सकता है। पण्डित जी ने बचा हुआ सारा धन बुलाकर हिजड़ों को दे दिया और स्वयं मन की शुद्धि के लिये उपवास प्रारम्भ कर दिया।
किस-किसका धन अग्राह्य है, इसका एक मापदण्ड प्रस्तुत करते हुए महाराज मनु कहते हैः-
‘दशसूनासमं चत्रं दशचत्रसमो ध्वनः।
दशध्वजसमो वेशो दशवेशसमो नृपः।’[5]
जो चत्र के द्वारा जीविका अर्जित करते हैं, जैसे-कुम्हार, गाड़ी, परिवहन से सम्बन्धित व्यवसाय करने वाले। इन लोगों के कार्य में जीव हिंसा अधिक होती है और प्राणियों का पालन और रक्षण कम होता है, उनके अन्न खाने वाले के मन पर दशहत्या करने के बराबर दूषित प्रभाव पड़ता है। जो मदिरा निकालकर बेचने वाले हैं, उन पर चत्र वाले अन्न की अपेक्षा दस गुना दुप्रभाव पड़ता है। जो लोग बाहर के दिखावे, वेशभूषा, आडम्बर और ढोंग से जीविका का उपार्जन करते हैं, उनका अन्न पहले से दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। मर्यादा का पालन न करने वाले राजा का अन्न वेशभूषा और बाह्य आडम्बर से आजीविका का उपार्जन करने वाले की अपेक्षा दस गुना अधिक मन को दूषित करता है। सम्भवतः, इसीकारण मर्यादा का अतित्रमण करने वाले राजनेता राजनीति में प्रवेश करने के साथ ही भ्रष्ट और चरित्रहीन हो जाते हैं और आराध्य मानकर उनके आगे पीछे चक्कर लगाने वाली जनता भी उक्त दोषों से बच नहीं पाती है।
एक अन्य स्थल पर मनु कहते हैं कि वेद का स्वाध्याय और उपदेश, दान, यज्ञ, यम, नियमों का आचरण और तप का अनुष्ठान- ये सभी उत्तम आचरण, जिसकी भावना शुद्ध नहीं है, उसे कोई लाभ नहीं पहुँचा सकतेः-
‘वेदास्त्यागाश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।
न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्।’[6]
महाभारत में युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए भीष्म पितामह कहते हैः-
‘अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कर्हिचित्।
इति सत्यं महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।’
हे युधिष्ठिर! मनुष्य अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं है। इसी अर्थ के कारण मैं कौरवपक्ष से बँधा हुआ हूँ। यहाँ भीष्म नीति और अनीति को जानते हुए भी सत्य का, जो युगधर्म भी है, साथ देने से कतरा रहे हैं। इसका कारण जो मनु ने बताया है, वही है कि राजा का अन्न अन्य किसी धन की अपेक्षा हजार गुना अधिक मन को दूषित कर देता है। आज का मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक शिक्षित होते हुए भी अधिक पथभ्रष्ट होगया है, इसके मूल में अर्थ की पवित्रता को भूल जाना है।
एक नीतिकार का कथन है कि मूर्ख लोगों ने थोड़े से लाभ के लिये वेश्याओं के समान अपने आपको सजाकर दूसरों के अर्पण कर दिया हैः-
‘अबुधैरर्थलाभाय पण्यस्त्रीभिरिव स्वयम्।
आत्मा संस्कृत्य संस्कृत्य परोपकारिणी कृतः।’
अब प्रश्न उठता है कि क्या हमें धन की उपेक्षा कर देनी चाहिये? कदापि नहीं, क्योंकि वेदशास्त्र हमें समृद्ध और सुखमय जीवन यापन करने का उपदेश देते हैः-‘पतयः स्याम रयीणाम्।’[7] लेकिन जिनके पास धन है, उन्हें धन का उपयोग किस प्रकार करना चाहिये, ऋग्वेद कहता हैः-
‘मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।’[8]
जो स्वार्थी व्यक्ति अकेले ही सब कुछ खाना चाहता है, मैं सत्य कहता हूँ कि यह उसकी मृत्यु है, क्योंकि इस प्रकार खाने वाला व्यक्ति न अपन भला कर सकता है और न मित्रों का। केवल अपने ही खाने-पीने का ध्यान रखने वाला व्यक्ति पाप का भक्षण करता है।
आजीविका के चलाने का ऐसा कौन-सा मार्ग है, जिस पर चलकर मनुष्य ससम्मान जीवन यापन कर सकता है। इस विषय में नीतिकार का मत हैः-
‘अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घय़ सतां मार्गं यत् स्वल्पमपि तद्बहु।’
दूसरों को सन्ताप दिये विना, दुष्ट के आगे सिर झुकाये विना तथा सन्मार्ग का उल्लङ्घन न करते हुए जो भी प्राप्त हो जाये, वही धन स्वल्प होते हुए भी बहुत है।
यदि व्यक्ति उक्त मार्ग का अनुसरण करता है, तो उसका धन पवित्र धन है। इस प्रकार के अन्न का उपभोग करने वाला व्यक्ति, यदि साधना पथ पर बढ़ता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है।
[1] मनु0,6.92.
[2] मनु0,5.106.
[3] मनु0,5.109.
[4] छान्दो0,3.7.25.
[5] मनु0,4.85.
[6] मनु0,2.97.
[7] ऋ0,10.121.10.
[8] ऋ0,10.117.6.
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