Thursday, September 28, 2017

ईश्वर की र्वव्यापकता - आर्यसमाज के यशस्वी दार्शनिक विद्वान् श्री पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी

आर्यसमाज के यशस्वी दार्शनिक विद्वान् श्री पंडित गंगा प्रसाद जी उपाध्याय जी एक बार अपने उपदेश में ईश्वर की र्वव्यापकता का मंडन व मूर्ति पूजा का खंडन कर चुके तो उस सभा में ही एक श्रोता ने खड़े होकर प्रश्न कर दिया

"
तुम वेद के ठेकेदारों से हैं, यह मेरा सवाल कण-कण में खुदा हैं तो मूर्ति में क्यूँ नहीं ?
-श्री उपाध्याय जी ने प्रश्न सुनकर पूछा कि:-
प्रश्न 
का उत्तर तुम्हारी तरह पद्य में दूँ या गद्य में ?
प्रश्नकर्ता ने कहा कि मजा तो इसी में हैं कि आप उत्तर भी मेरी तरह पद्य में ही दें.
-तब पंडित जी ने उत्तर देते हुए कहाँ:- "तुम पुराण के ठेकेदारों को हैं यह मेरा जवाब,
-मूर्ति में खुदा तो हैं पर तुम तो उसमें हो नहीं.
प्रश्नकर्ता पौराणिक था व उसका तात्पर्य यह था कि जब ईश्वर सर्वव्यापक हैं, तो वह मूर्ति में भी स्वत: सिद्ध होता हैं. जब मूर्ति में ईश्वर का होना सिद्ध हो गया, तो मूर्ति कि पूजा ईश्वर कि पूजा हो तो सिद्ध होती हैं. फिर मूर्ति पूजा का विरोध या निषेध क्यूँ किया जाता हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर हैं कि ईश्वर अति सूक्षम हैं.वह दृश्यमान नहीं हैं , साकार नहीं हैं. रंग, रूप व आकार आदि गुण प्रकृति से बनाए सृष्टि के दृश्यमान पदार्थों के हैं. ईश्वर के नहीं हैं. साकार मूर्ति ईश्वर ने नहीं बनाई. ईश्वर ने प्रकृति से पत्थर बनाए तथा मनुष्य ने पत्थर से मूर्ति बनाई. प्रकृति, पत्थर व मूर्ति में अपने अन्तर्यामी व सर्वव्यापक गुणों के कारण से ईश्वर तो विद्यमान हैं, यह सत्य हैं परन्तु इन सब में से कोई भी ईश्वर नहीं हैं, यह भी सत्य हैं. इसे इस प्रकार भी कहाँ जा सकता हैं
कि मूर्ति में ईश्वर हैं, परन्तु मूर्ति- मूर्ति ही हैं, वह ईश्वर नहीं हैं. सर्वव्यापक निराकार ईश्वर कि मूर्ति बन भी नहीं सकती क्यूंकि एक मूर्ति में न सिमट सकने वाले ईश्वर को आप कैसे सीमित कर सकते हैं. इसके विपरीत आत्मा ईश उपासना या भक्ति करना चाहता हैं. वह ईश्वर कि तरह न तो अन्तर्यामी हैं तथा न ही सर्वव्यापक हैं. हमारे ह्रदय में आत्मा हैं. आत्मा ईश्वर के निकट विद्यमान हैं. आत्मा का ईश्वर से मिलना, योग व समाधी में अनुभूति द्वारा ही संभव हैं .ह्रदय से बाहर मूर्ति में विराजमान ईश्वर का मिलन विभिन्न स्थान होने से कैसे संभव हैं ? दो व्यक्तियों का मिलना पृथक- पृथक स्थानों पर होने
से संभव ही नहीं हैं .जब दोनों व्यक्ति एक स्थान पर आये तो ही उनका मिलन होगा. प्रत्यक्ष: में भी हम यही देखते हैं.
मनुष्य में आत्मा केवल और केवल उसके ह्रदय में ही हैं और ह्रदय में ही रहेगी. आत्मा सर्वव्यापक नहीं हैं. वह पत्थर कि मूर्ति में भी नहीं हैं और अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती. अत: आत्मा और परमात्मा का मिलन मूर्ति में नहीं हो सकता. जब एक वस्तु हमारे निकटतम हो तो उसे प्राप्त करने के लिए दूर जाने कि आवश्यकता ही नहीं हैं. अल्पज्ञों को यह बात समझ
नहीं आती व वे मूर्ति को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं. 
गीता में १८/६१ में कहाँ भी गया हैं कि हे अर्जुन!
ईश्वर सभी प्राणियों के ह्रदय में स्थित हैं.
यजुर्वेद ४०/५ में ईश्वर के विषय में कहाँ गया हैं- वह दूर भी हैं, वह समीप भी हैं, वह भीतर भी हैं, वह बाहर भी हैं. अज्ञानी लोग ईश्वर को आत्मा से दूर मानते हैं इसीलिए ईश्वर को वे पत्थरों में, पेड़ों में, चित्रों में,नदियों में,तीर्थों में,चौथें आसमान पर, सातवें आसमान पर, कैलाश पर, क्षीर सागर पर, गोलोक में होना मानते हैं. किन्तु सच्चे आस्तिकों, योगियों व विद्वानों के
विचार में ईश्वर हमारे भीतर आत्मा में ही मिलते हैं. हम उसमें हैं और वह हममें हैं. इससे अधिक निकटता- समीपता अन्य किसी भी दो वस्तुयों में नहीं हैं. अत: ईश्वर को प्राप्त करने के लिए आत्मा से बाहर जाने कि आवश्यकता नहीं हैं. हमारा ईश्वर हमारी आत्मा में ही हैं. आत्मा बाहर मूर्ति में जा नहीं सकती. उपासना का सही अर्थ हैं निकट बैठना और हमारे ह्रदय में आत्मा ही ईश्वर के समीप बैठ सकती हैं. मूर्ति कि आकृति को व्यक्त किया जा सकता हैं जबकि ईश्वर के निराकार होने के कारण उनके रूप को व्यक्त नहीं किया जा सकता. वेदांत दर्शन के ३/२/२३ में और कठोपनिषद २/३/१२ में लिखा हैं कि ईश्वर वाणी, मन , नेत्रों से प्राप्त नहीं किया जा सकता. इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्द शास्त्रथ महारथी पंडित राम चन्द्र दहेलवी का कथन कि “हम ईश्वर को मूर्ति के भीतर अ बाहर स्वीकार करते हैं. हम मूर्ति का खंडन नहीं अपितु मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं. जब ईश्वर सर्वत्र हैं तो मूर्ति के भीतर वाले ईश्वर को ही आप क्यों पूजना चाहते हैं? मूर्ति के बाहर वाले ईश्वर को आप क्यों नहीं पूजना चाहते? मान लीजिये, आप मुझे मिलने आये हैं तथा मैं आपको अपने द्वार के बाहर ही मिल जाऊ तो मुझसे मिलने में आपको अधिक सुविधा होगी अथवा मेरे भीतर होने पर होगी. भगवान् तो सब जगह हैं उससे बाहर ही मिल लीजिये, व्यर्थ में
मूर्ति के अन्दर वाले के पीछे क्यों पड़े हैं? आप मूर्ति में दाखिल नहीं हो सकते और मूर्ति वाला ईश्वर बाहर नहीं आ सकता. क्यों मुश्किल में पड़ते हो? सरल काम कीजिये और मूर्ति से बाहर वाले कि पूजा कर लीजिये. मूर्ति में ईश्वर को व्यापक मानकर मूर्ति कि पूजा करने वालों से हमारा यह अनुरोध हैं कि ईश्वर मूर्ति से बाहर भी सर्वत्र हैं व हमारे ह्रदय में तो वह अन्तर्यामी होने से अत्यंत निकट हैं. ईश्वर को बाहर तलाशने वालों के लिए यह भजन कि पंक्तियाँ प्रेरणादायक हैं 
"तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान, किसने देखी तेरी सूरत, कौन बनाए तेरी मूरत ?
तू ही निराकार भगवान् बना मन मंदिर आलीशान.....

Saturday, September 23, 2017

श्राद्ध - तर्पण विचार

॥ओ३म्॥
श्राद्ध - तर्पण विचार
पञ्च महायज्ञ में द्वतीय तर्पण नामक पितृयज्ञ है । उसी का अवान्तर भेद श्राद्ध है । पितृयज्ञ के भेदों में तर्पण सामान्य कर भूख-प्यास आदि से होने वाले दुःखों की निवृत्तिरूप तृप्ति वा प्रसन्नता , मन में पूरा सन्तोष वा आनन्दरूप माना जाता है । और श्राद्ध नाम कर्मविशेष का है कि जिस कर्म के द्वारा अन्न से तृप्त हुए जन क्षुधा से होने वाले दुःखों से निवृत्त होते हैं । श्रद्धा से जिस कारण दिया जाता है, इसलिये इस पितृसम्बन्धि दानकर्म को श्राद्ध कहते हैं । अथवा श्रद्धा पूर्वक दिये जाने वाले अन्न का नाम भी श्राद्ध हो सकता है । इसी अर्थ से श्राद्धभोजी शब्द सार्थक बन जाता है कि श्राद्ध-नाम श्रद्धापूर्वक बनाये अन्न का खाने वाला । तथा इसी विचार के अनुसार पाणिनीय सूत्र "श्राद्धमनेन भुक्तमिनिठनौ" घट जाता है कि जिसने श्राद्ध का भोजन किया हो , वह श्राद्धि वा श्राद्धिक कहावेगा । यहां भक्ति श्रद्धा से पकाये हुए अन्न का नाम श्राद्ध है । इसी प्रमाण से श्राद्ध शब्द भोजन से होने वाले सत्काररूप कर्म का नाम है , यह निश्चित होता है - यही सत्य सिद्धान्त है ।।
श्राद्ध में पितर कौन ?
अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस पर सङ्क्षेप में विचार करते हैं । नीति में लिखा है कि - 'उत्पादक , यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता , अन्न्दाता और भय से बचाने वाला , ये पञ्च पिता या पितर माने गये हैं (जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ....... ।।) इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पाद पिता या पितर में रूढ़ि भी है । सामान्य जन पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते । परंतु विशेष व्यवहार में नीति से प्रकरणानुसार अर्थ ग्रहण होते हैं । परन्तु श्राद्धकर्म में विशेषकर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है , और अपने पिता (उत्पादक) की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिए - अन्यथा वह कृतघ्न है । और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये , वही श्राद्ध है ।।
श्राद्ध और ऋतु विचार
शरद्धेमन्तः शिशिरस्ते पितरः ।। शतपथ ।। से शरद को पितरों की ऋतु कहा है अतः इसी में श्राद्ध अभीष्ट है - अब इस विचार के समाधान में बल लगाया जाता है - श्राद्ध कर्म विधि वाक्यों द्वारा स्मृति में उत्सर्गरूप से प्राप्त है परंतु अपवाद रूप से नैमित्तिक श्राद्ध भी कहा गया है - जो प्रतिदिन श्राद्ध में समर्थ नहीं है या जिसे पितर नित्य - नित्य प्राप्त नहीं उसके लिये नैमित्तिक श्राद्ध अपवाद रूप से प्राप्त है - उतसर्ग से अपवाद का क्षेत्र अल्प है अतः नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत था - ऐसा पाणिनीय सूत्र "श्राद्धे शरदः" से प्रतीत होता है । इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् होता है । अतः शरद् में होने वाले श्राद्ध को ही शारदिक कहेंगे यद्यपि अन्य कार्य शारद कहायेंगे । परन्तु इस सूत्र से यह तात्पर्य कभी नहीं है कि शरद् में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाये वा अन्य ऋतु में श्राद्ध होता ही नहीं - किन्तु सूत्र का अभिप्राय मात्र इतना ही है अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न होकर अण् ही हो ।।
।। ओ३म् ।।

Thursday, September 21, 2017

Ved-Mantra MEMORIZE Challenge



Ved-Mantra MEMORIZE Challenge
नवरात्री आ गयी
नवरात्री के नौ दिन पौराणिक व्यक्ति नियम से (1)उपवास करेंगे, (2) नित्य माताजी के मन्दिर जायेंगे, घंटा बजायेंगे (2) चंडी-पाठ करेंगे, दुर्गा सप्तशती पढेंगे आदि आदि
लेकिन ......लेकिन
आप क्या करेंगे ??
आप तो पौराणिक हैं नहीं !!!! फिर क्या खाली बैठे रहेंगे ???
नहीं नहीं !!!
खाली बैठने वाले को वेद में दस्यु कहा है | ऋग्वेद 10/22/8 मन्त्र में कहा है "अकर्मा दस्यु:" अर्थात् कर्म न करने वाला लेकिन हम तो आर्य हैं और आर्य का मतलब होता है श्रेष्ठ | श्रेष्ठ वह व्यक्ति होता है जो निर्माण करे....कुछ नया सीखे, आगे बढ़े आदि
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तो नौ दिनों में हम क्या करें ?
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नौ दिनों में हम वेद के नौ मन्त्रों को याद करेंगे |
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वेद के बहुत सारे मन्त्रों में से कोई भी नौ मन्त्र चुन लीजिये और याद कीजिये | प्रतिदिन एक मन्त्र याद कीजिये |
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यदि मन्त्र पहले से याद हैं तो Challenge के तीन स्तर नीचे अनुसार हैं उसमें अपने आपको परखें :-
मान लीजिये, आपको ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना के आठ मन्त्र और गायत्री मन्त्र याद है तो हो गए नौ | इन नौ मन्त्रों को नीचे के चुनौती स्तर से परखें |
१) कंठस्थ मन्त्रों को पुस्तक के साथ पढ़ें, पुस्तक सामने रख कर धीरे-धीरे मन्त्र देख कर पढ़ें और स्वयं देखें की कहीं गलती तो नहीं हो रही, कहीं छोटी मात्रा (ह्रस्व) को बड़ी मात्रा (दीर्घ) न बोलें, आधे अक्षर को पूरा न बोलें आदि-आदि | यदि कोई उच्चारण दोष हो तो सुधारें |
२) यदि पहले स्तर को पार कर लें तो ......चुनौती का दूसरा स्तर है मन्त्र याद करने के बाद उसे लिख कर देखें की कहीं दोष तो नहीं है | जो पढ़ा है वही याद है या कुछ और ............और जो याद है वही लिखा जा रहा है या कुछ और ? ऐसे करके अपने आपको परखें | परखेंगे तो निखरेंगे और बन जायेंगे आर्य | महात्मा प्रभुआश्रित जी ध्यान की अलग-अलग विधियों में एक विधि यह भी बतलाते हैं की साधक अपनी बन्द आँखों के सामने मन्त्र लिखे और ओ३म् जाप करता रहे | ठीक इसी तरह आप भी कागज पर मन्त्र लिख कर देखें और फिर मिलान करें पुस्तक के साथ | यदि कोई दोष हो तो उसे सुधारें, फिर दुबारा लिखें और तब तक यही क्रम जारी रखें जब तक आपका लेखन शुद्ध न हो जाए |
३) चुनौती का अगला स्तर है मन्त्र के अर्थ को याद करना, अर्थ को समझना, उसकी व्याख्या को पढ़ना, मनन करना आदि |
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तो आइये ! नवरात्री के नौ दिनों में नीचे के चुने हुए मन्त्र याद करें और अपना जीवन वेद की रक्षा में लगायें |
1)
ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ |
अधा ते सुम्नमीमहे | (ऋग्वेद 8/98/11)
अर्थात् :- हे बहुविध उद्यमों को कर, सबको बसाने वाले परमात्मन् ! तू ही हमारा जनक है और तू ही हमारी जननी है, अतः हम तेरा अपने प्रति सु-मन, सुष्ठु-मन चाहते हैं, तेरी अपने प्रति शुभ-कामनाएँ (Good Wishes) चाहते हैं |
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2)
ओ३म् उपह्वरे गिरिणां संगथे च नदीनाम् |
धिया विप्रो अजायत || (ऋग्वेद 8/6/28)
अर्थात् :- पर्वतों के समीप वा पर्वतों की उपत्यकाओं में और नदियों के संगम पर ध्यान करने अर्थात् योगाभ्यास करने से मनुष्य विप्र-ज्ञानी, मेधावी, विवेकी, ब्रह्मज्ञानी हो जाता है |
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3)
मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिनः |
मान्तः स्थुर्नो अरातय: || (ऋग्वेद 10/57/1)
अर्थात् :- हे परमेश्वर ! हम सत्पथ से कभी विचलित न हों | हम ऐश्वर्यशाली हो कर यज्ञ आदि शुभ कार्यों से कभी विचलित न हों | यज्ञादि शुभ कर्मों में बाधा उत्पन्न करने वाले अराति भाव - अदानभाव , स्वार्थभाव या काम-क्रोध आदि शत्रु हमारे भीतर न रहें |
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4)
ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च
नमः शिवाय च शिवतराय च || यजुर्वेद अध्याय 16 मन्त्र 41
अर्थात् :- जो सुखस्वरूप संसार के उत्तम सुखों का देनेवाला कल्याण का कर्त्ता मोक्षस्वरूप , धर्मयुक्त कामों को ही करनेवाला अपने भक्तों को सुख का देने वाला और धर्म-कामों में युक्त करनेवाला, अत्यन्त मङ्गल स्वरूप और धार्मिक मनुष्यों को मोक्षसुख देने हारा है उसको हमारा बारम्बार नमस्कार हो |
.
5)
यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः |
उशतीरिव मातर: || (सामवेद 1838)
अर्थात् :- हे सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी प्रभो ! जो आपका अत्यन्त कल्याणकारी रस है, उसका इस मानव चोले में हमें बच्चों का कल्याण करना चाहनेवाली माताओं के समान सेवन कराओ |
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6)
उपहूतो वाचस्पतिरूपास्मान् वाचस्पतिर्ह्वयताम्
सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि || (अथर्ववेद 1/1/4)
अर्थात् :- परमात्मा या आचार्य को हमने अपनी समीपता के लिए बुलाया है, वाचस्पति भी हमको अपने समीप बुलाकर रखे, सुने हुए ज्ञान के साथ हमारा संयोग रहे, ज्ञान से मेरा वियोग न हो |
.
7)
अनुव्रतः पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना: |
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् || (अथर्ववेद 3/2/2)
अर्थात् :- पुत्र पिता का अनुव्रती हो, पिता के अनुकूल कर्म करनेवाला हो, माता के साथ समान मनवाला - एक मनवाला हो, पत्नी पति मधुमयी शान्तियुक्त वाणि बोलें ||
.
8)
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा |
समयञ्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया || (अथर्ववेद 3/30/3)
अर्थात् :- भाई-भाई से द्वेष न करे और बहन बहन से द्वेष न करे | तुम सब एक मतवाले और एक व्रतवाले होकर परस्पर भद्र वाणी बोलें |
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9)
ओ३म् अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति,
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति || (अथर्ववेद 10/8/32)
अर्थात् :- मनुष्य ! समीप विराजमान भगवान् को न छोड़ता हुआ है, और समीप विद्यमान भगवान् को न देखता है | दिव्य देव के काव्य को देखो, जो न कभी मरता है और न जीर्ण होता है|
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10) विजयादशमी का :-(एक अतिरिक्त मन्त्र)
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयनतां पावमानी द्विजानाम् | आयु: प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् | मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् || (अथर्ववेद 19/71/1)
अर्थात् :- हे मनुष्यों ! द्विजों को पवित्र करनेवाली वरदा वेदमाता मेरे द्वारा प्रस्तुत की गई वा स्तुत की गई है तुम भी उसका प्रचार करो, उससे औरों को प्रेरित करो | यह आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन-बल और ब्रह्मतेज-ब्रह्मबलरूप वरों को देनेवाली है | तुम यह सब-कुछ मुझे प्रदान कर ब्रह्मलोक की ओर चलो |
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मन्दिर में कलश-स्थापन या घट-स्थापन हुआ है वैसे ही आप नवरात्री के दिनों में नौ मन्त्र याद करने का संकल्प स्थापन करें और वेद रक्षा में अपना योगदान दें |
धन्यवाद
विदुषामनुचर
विश्वप्रिय वेदानुरागी